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सूत्र संवेदना - २
प्रकाशित होना, प्रद्योत है एवं प्रकृष्ट रूप से जो प्रकाश करते हैं, वे प्रद्योतक हैं । इस तरीके से मात्र गणधरों के लिए ही परमात्मा प्रद्योतक है, क्योंकि परमात्मा को यहाँ 'सामान्य प्रकाश करनेवाले' नहीं कहा, परन्तु यहाँ तो परमात्मा को मात्र ‘उपनेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा' - इन तीन पद द्वारा समस्त जगत का दर्शन करवा सकें, वैसे प्रद्योतक-महाप्रकाशक कहा है । भगवान तो समस्त जगत् के लिए ऐसा प्रकृष्ट प्रकाश करनेवाले हैं, परन्तु बीज बुद्धि के स्वामी गणधरों के सिवाय किसी में इतनी ताकत नहीं है कि, मात्र इन तीन पदों को सुनकर विशिष्ट प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम कर सके और समस्त जगत् एवं जगद्वर्ती पदार्थों को यथार्थ जानकर मात्र एक ही अंतर्मुहूर्त में समस्त द्वादशांगी की रचना कर सकें। गणधर भगवंत ही इस प्रकार तीर्थंकर के प्रथम शिष्य होने का पुण्य और क्षयोपशम लेकर आए हुए होते हैं । इसलिए, भगवान के वचन उनके लिए विशिष्ट प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशमरूप प्रद्योत को करनेवाले बनते हैं ।
यह पद बोलते समय योग्यता के अनुसार परम उपकार करनेवाले परमात्मा के प्रति अत्यंत पूज्य बुद्धि को धारण कर, हृदय को उन भावों से भिगोकर नमस्कार करना है एवं नमस्कार करते हुए ऐसी प्रार्थना करनी है -
“लोकप्रद्योतक हे नाथ ! आपको किया हुआ यह नमस्कार मुझमें ऐसी योग्यता प्रकट करे कि, जिससे आप मेरे लिए भी प्रद्योतक
बन जाएँ ।” .. लोगुत्तमाणं आदि पाँच पदों द्वारा स्तोतव्य अरिहंत भगवंतों का सामान्य उपयोग बताया गया। यहाँ सामान्य उपयोग कहने का कारण है कि श्रुत एवं चारित्ररूप धर्म में श्रुतधर्म सामान्य धर्म है । भगवान लोक में उत्तम हैं, लोक के नाथ बनते हैं, लोक का हित करते हैं, लोक के प्रदीपक या प्रद्योतक बनते हैं, वह उपदेशरूप श्रुतधर्म की अपेक्षा से है । यह श्रुतधर्म चारित्रधर्म की अपेक्षा से सामान्य धर्म है । इसलिए इन पाँच पदों से 'सामान्य उपयोग संपदा' बताई गई।