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नमोत्थुणं सूत्र
तृप्ति : इस विषय पर गहराई से सोचना चाहिए । एक माँ-बाप ने बालक को खूब सुंदर संस्कार दिए, परन्तु बालक की योग्सता न होने से उस बालक ने अपने जीवन को संस्कारित न बनाया, तो भी उस माँ-बाप को बालक का हित करनेवाले ही कहते हैं । उसी तरह एक शिकारी ने पक्षी पर बाण छोड़ा परन्तु चालाक पक्षी बाण की आवाज़ से उड़ गया, उससे मरा नहीं, तो भी बाण मारनेवाले शिकारी को व्यवहार से सब वध करनेवाला ही कहते हैं एवं वधजन्य पाप भी उसको लगता है। उसी प्रकार शायद अपनी मान्यता के अनुसार जड़ पदार्थ का हित न होता हो, तो भी उस पदार्थ के यथार्थ दर्शन, यथार्थ कथन एवं उसके साथ उचित प्रवर्तन से प्रभु को उनका हित करनेवाले कहते हैं ।
वस्तु के यथार्थ दर्शन के बिना उस वस्तु का हित नहीं कर सकते । मोहाधीन संसारी जीव पदार्थ के यथार्थ रूप को नहीं देख सकते । इसीलिए वे आत्मा से भिन्न देह, धन आदि भावों को अपने से अभिन्न (अपने साथ ऐकमेक) मानते हैं एवं बोलते हैं । वास्तव में जगत् के कोई भी भाव, जीव को सुख भी नहीं देते या दुःख भी नहीं देते, तो भी वे यह देह, धनादि पदार्थ मुझे सुख या दुःख देते हैं, वैसा मानते हैं एवं कहते हैं । अपने लिए अनुकूल या सुंदर लगनेवाले पदार्थों में राग करते हैं, अपने लिए प्रतिकूल या जिसमें खराब की कल्पना की हो वैसे पदार्थों में द्वेष करते हैं एवं खुद को जिसके साथ लेना-देना नहीं है, उसकी उपेक्षा करते हैं । इस प्रकार मोहाधीन संसारी जीव वस्तु के प्रति अपने औचित्य का विचार किए बिना राग-द्वेषादि का भाव करके कर्म बांधकर अपना ही अहित करते हैं एवं पर पदार्थों के साथ भी यथा तथा व्यवहार करके उनका भी अहित करते हैं ।
जब कि, वीतराग परमात्मा जगत् के तमाम पदार्थों को यथार्थरूप से देखते हैं एवं देखकर जगत् के आगे उन पदार्थों का यथार्थ प्रतिपादन भी करते हैं तथा उस पदार्थ के साथ वर्तन करते हुए उसमें राग-द्वेष या रुचिअरुचि करके कर्म बांधकर अपनी आत्मा का भी अहित नहीं करते एवं उन