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सूत्र संवेदना - २
संपूर्ण प्रयोग करता है, वैसे ही भगवान भी रागादि बलवान शत्रु के सामने ही अपने वीर्य का संपूर्ण
प्रयोग करके उनका नाश करने का प्रयत्न करते हैं । ५. वीर : वीर शब्द की व्युत्पत्ति दो तरीके से होती है -
विशेषेण राजते इति वीर : सिंह जिस प्रकार केशराजि से विशेष शोभायमान होता है, वैसे ही परमात्मा तप-संयमादि गुणों से विशेष सुशोभित होते हैं । विशेषेण ईरयति इति वीर : सिंह जिस प्रकार सत्त्व के कारण निडर होकर विशेष प्रकार से वन में गति करता है, वैसे परमात्मा भी कर्मनाश के लिए विशेष
प्रकार से तप वगैरह योगों में प्रवृत्ति करते हैं। ६. अवज्ञावाला : सिंह भूखा हो, तो भी घास कभी नहीं खाता, तथा छोटे
प्राणियों की भी हिंसा नहीं करता । तुच्छ वस्तुओं की उपेक्षा या अवज्ञा ही करता है, वैसे ही भगवान भी
क्षुधादि परिषहों की उपेक्षा एवं अवज्ञा ही करते हैं । ७. निर्भय : सिंह जिस प्रकार हजारों हाथियों के झुंड से भी नहीं
डरता, वैसे ही परमात्मा भी मरणांत उपसर्ग आने पर
भी लेश मात्र भी भयभीत नहीं होते । ८. निश्चित : सिंह जब तृप्त होता है, तब भविष्य के आहार की
कोई चिंता नहीं करता, भविष्य के लिए किसी प्रकार __ का संग्रह भी नहीं करता । उसी तरह देवाधिदेव भी । अपनी इन्द्रियों या देह की अनुकूलता या प्रतिकूलता - की कभी चिंता नहीं करते । वे अपने आध्यात्मिक
गुणों द्वारा ही तृप्ति की अनुभूति करते हुए निश्चित होते हैं ।