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सूत्र संवेदना - २
बुद्धिमान को पुनः प्रश्न होता है कि ऐसे प्रभु का अनादिकाल से कैसा स्वरूप था कि, जिसके कारण वे इस भव में अरिहंत एवं भगवान बने । उन कारणों को अब आनेवाले चार पदों की तीसरी संपदा में बताते हैं । यह संपदा स्तोतव्य संपदा की 'असाधारण हेतु संपदा' है ।
पुरिसुत्तमाणं7 (नमोऽत्थु णं) - पुरुषों में उत्तम (ऐसे परमात्माओं को मेरा नमस्कार हो ।)
पुरि शयनात् पुरुष:- जो पुर में शयन करनेवाला हो, उसे पुरुष कहते हैं । यहाँ पुर अर्थात् शरीर एवं शयन करना अर्थात् रहना। जो जीव शरीर में रहता है, उसे पुरुष कहते हैं । इस तरह अर्थ करने से संसारवर्ती सर्व जीवों को पुरुष कह सकते हैं ।
अरिहंत परमात्मा सर्व जीवों में उत्तम हैं क्योंकि, निगोद अवस्था से प्रारंभ करके उनमें योग्यता के अनुसार दूसरे जीवों की अपेक्षा विशिष्ट कोटि के दस गुण रहते हैं । जैसे-जैसे गुण संपत्ति के योग्य द्रव्य, काल, क्षेत्रादि की सामग्री प्राप्त होती हैं, वैसे-वैसे ये गुण प्रकट होते हैं । इसके
करनेवाले कहे हैं । इसलिए दोनों पदों में भेद भी रहता है एवं दोनों पदों से भगवान किस हेतु से स्तुति करने योग्य है, वह भी बताया है। इस तरह उन्होंने दो पद एवं तीसरा ‘सयंसंबुद्धाणं' पद मिलकर दूसरी ‘ओघ हेतु संपदा' बताई है । जब कि ललित विस्तरा में 'आइगराणं' पद से भगवान को आदि में जन्मादि प्रपंच करनेवाले कहा गया है । तीर्थंकर होने से पहले प्रभु सर्व जीवों की तरह जन्मादि प्रपंच को करते थे । उनका यह धर्म सर्व जीवों के साथ साधारण धर्म है एवं ऐसे ही भगवान तित्थयराणं पद द्वारा तीर्थ को करनेवाले कहे गये हैं । तीर्थ शब्द से यहाँ चतुर्विध श्री संघ के उपरांत प्रवचन को भी स्वीकार किया गया है। इस तरह यहाँ जन्मादि प्रपंचरूप साधारण धर्मवाले प्रभु असाधारण ऐसे
तीर्थंकर एवं स्वयं संबुद्ध हुए । इस कारण से ही वे स्तुति करने योग्य बने हैं । इस प्रकार इन __ तीन पदों की 'प्रधान-साधारण-असाधारण-हेतुसंपदा' है। 27.बौद्धमत के किसी संप्रदाय की ऐसी मान्यता है कि, 'सभी जीव समान है'। कोई अपाय नहीं,
कोई अयोग्य नहीं। जब कि, 'पुरिसुत्तमाणं' पद में दर्शाया है कि, अरिहंत परमात्मा अपनी विशिष्ट योग्यता के कारण ही पुरुषों में उत्तम बने थे। इससे यह सूचित होता है कि, जीवों की योग्यता में भी भेद है। इस तरह बौद्धमत की मान्यता का खंडन होता है। 'पुरुषाः' सत्त्वा एव; तेषाम् ‘उत्तमाः' सहज तथा भव्यत्वादिभावतः प्रार्थना; पुरुषोत्तमाः । - ललित विस्तारा