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नमोत्थुणं सूत्र उत्तरोत्तर गुण विकास करवाकर अंत में तीर्थंकर पद की प्राप्ति करवाता है, जब कि, अन्य जीवों को प्राप्त सम्यक्त्व उन्हें केवलज्ञान आदि गुणों को प्राप्त करवाता है, परन्तु उन्हें अरिहंत पद तक नहीं पहुँचा सकता ।
यह पद बोलते हुए जिन्होंने स्वयं वरबोधि प्राप्त किया है, वैसे परमात्मा को मानसपटल पर लाकर नमस्कार करते हुए ऐसी आशंसा करनी चाहिए -
"हे नाथ ! आपको किए हुए नमस्कार की फलश्रुतिरूप आपके
जैसा ही श्रेष्ठ सम्यक्त्व मुझे भी प्राप्त हो ।” ऐसे भाव से नमस्कार करने से सम्यक्त्व गुण में विघ्न करनेवाले मोहनीय कर्म का नाश होता है एवं आत्मा धीरे-धीरे सम्यक्त्व गुण के अभिमुख होती है।
'तित्थयराणं' एवं 'सयं-संबुद्धाणं' इन दोनों पदों द्वारा परमात्मा का असाधारण धर्म बताया गया है क्योंकि ये दोनों धर्म अरिहंत की आत्मा के सिवाय कहीं नहीं होते । अरिहंत परमात्मा ने तीर्थ का प्रवर्तन करके हमारे ऊपर बहुत बड़ा उपकार किया है, इसलिए प्रभु अपने लिए स्तवनीय हैं ।
अरिहंत परमात्मा को किसी ने बोध नहीं दिया, वे स्वयं संबुद्ध हैं । दूसरे जीवों की तरह यदि उन्होंने अन्य के उपदेश से मार्ग पाया होता, तो भगवान को उपदेश देनेवाले अन्य उपदेशक अपने उपकारी बनते, परन्तु वैसा नहीं है । भगवान तो अपने आप ही श्रेष्ठ बोधि प्राप्त करते हैं, इसलिए वे ही अपने उपकारी हैं और इसलिए वंदना के योग्य हैं । इस प्रकार इन दो पदों द्वारा स्तुति का असाधारण26 कारण बताया । 26.तीन पदों से बनी इस संपदा को पूज्यपाद हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजा ललित विस्तरा में 'प्रधान
साधारण असाधारण हेतु' संपदा कहते हैं, जब कि कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य योगशास्त्र में उसे 'ओघहेतुसंपदा' कहते हैं । इसलिए इस संपदा में आनेवाले 'आइगराणं' पद का अर्थघटन भी दोनों आचार्य भगवंतों ने अलग-अलग तरीके से किया है । योगशास्त्रकार ने 'आइगराणं' पद का अर्थ करते हुए कहा कि, प्रभु श्रुतधर्म की आदि करनेवाले हैं । भगवान को यदि श्रुतधर्म की आदि करनेवाले स्वीकारे तो तित्थयराणं पद की कोइ आवश्यकता ही न रहे, परन्तु उन्होंने तित्थयराणं पद से परमात्मा को चतुर्विध संघ एवं गणधर की स्थापना