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सूत्र संवेदना - २
तीर्थ की स्थापना यह परमात्मा के जीवन का उच्चतम परोपकार है । एक महान सत्कार्य है । परमात्मा की यह उत्कृष्ट से उत्कृष्ट शुभ प्रवृत्ति है।
श्रेष्ठ सम्यग्दर्शन गुण से युक्त अरिहंत प्रभु पूर्व के तीसरे भव में जब कर्माधीन जीवों की विविध दुर्दशा देखते हैं, तब उनके हृदय में तीव्र करुणा भाव प्रकट होता है । जगत के जीवों को दुःख से मुक्त करने की भावना उत्पन्न होती है । परन्तु... वे समझते हैं कि, जैनशासन के सिवाय इस जगत में जीवों को मुक्त करनेवाला अन्य कोई नहीं है । इसलिए वे सोचते हैं कि, 'जो होवे मुज शक्ति इसी, सवि जीव करूं शासन रसी । (यदि मुझ में ऐसी शक्ति हो तो सर्व जीवों को शासन रसिक बनाऊँ) । किसी जीव को शासन रसिक बनाना याने उसके हृदय में सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र की रुचि उत्पन्न करना और संसार की रुचि याने विषय-कषाय की रुचि निकाल देना । बस इसी भावना से वे तीर्थंकर नामकर्म की निकाचना करते हैं । ___ अंतिम भव में जब परमात्मा, साधना द्वारा घनघाति कर्मों का क्षय करते हैं, तब समस्त जगत को प्रकाशित करनेवाले केवलज्ञानादि गुण प्रकट होते हैं । इसके साथ ही, पूर्व के तीसरे भव में सभी जीवों को शासन रसिक करने की भावना से निकाचित किए हुए तीर्थंकर नामकर्म का विपाकोदय प्रारंभ होता है । वैसे तो मोहनीय कर्म का नाश होने के कारण उनको तीर्थ का प्रवर्तन करने की कोई इच्छा नहीं होती, फिर भी जिस प्रकार सूर्य स्वभाव से पूरी दुनिया को प्रकाशित करता है, वैसे ही परमात्मा भी तीर्थंकर नामकर्म के उदय से उत्कृष्ट परोपकार की प्रवृत्ति सहज भाव से करते हैं । इस परोपकार द्वारा ही उनके तीर्थंकर नामकर्म का क्षय होता है।
परमात्मा तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं अर्थात् परमात्मा चतुर्विध श्रीसंघ की स्थापना करते हैं एवं प्रवचन प्रदान करते हैं । देशना द्वारा वे जगत के जीवों को जड़ एवं, चेतन द्रव्य का यथार्थ स्वरूप समझाते हैं, मात्र स्वरूप ही नहीं, परन्तु देशना द्वारा जीव द्रव्य को किसी भी प्रकार की पीड़ा न हो एवं जड़ द्रव्य को किसी भी प्रकार से हानि न हो, वैसी जीवनपद्धति बताते हैं।