Book Title: Sthananga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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स्थान १ उद्देशक.१ 000000000000000000000000000000000000000000000000000 पर्याय की अपेक्षा उत्पाद एक है। एक समय में एक पर्याय की अपेक्षा विनाश एक है। मृत्यु को प्राप्त हुए जीव का शरीर एक है। मृत्यु के पश्चात् जीव की गति एक है अर्थात् जीव नरकादि किसी एक गति में ही जाता है। गति के समान आगति भी एक है अर्थात् जीव नरकादि किसी एक गति से ही आता है। एक जीव की अपेक्षा वैमानिक और ज्योतिषी देवताओं का च्यवन यानी मरण एक है। उपपात यानी देव और नैरयिकों का जन्म एक है। तर्क यानी ईहा ज्ञान से बाद में और अवाय ज्ञान से पहले होने वाला तर्क ज्ञान एक है। संज्ञा यानी व्यञ्जनावग्रह से बाद में होने वाला मतिज्ञान अथवा आहार संज्ञा आदि संज्ञा एक है। मनन यानी पदार्थ का ज्ञान हो जाने पर उसके सूक्ष्म धर्मों का विचार करने रूप बुद्धि एक है। विज्ञ यानी विद्वान् अथवा विद्वत्ता एक है। पीड़ा रूप वेदना एक है। तलवार आदि से शरीर का या अन्य पदार्थों का छेदन अथवा कर्मों की स्थितिघात रूप छेदन एक है। कुल्हाड़ी आदि से काटने रूप भेदन अथवा कर्मों का रसघात रूप भेदन एक है। अन्तिम शरीरी यानी चरम शरीरी जीवों का मरण एक है अर्थात् वे उसी भव में मोक्ष चले जाते हैं फिर उनका जन्म मरण नहीं होता है। कषायों से रहित निर्मल चारित्र वाले यथाभूत - तात्त्विक ज्ञानादि गुण रत्नों के पात्र एक तीर्थङ्कर भगवान् होते हैं। चरम शरीरी जीवों की अपेक्षा अथवा एक जीव की अपेक्षा दुःख एक है। जिससे आत्मा क्लेश को प्राप्त होता है वह अधर्मप्रतिमा या अधर्म करने वाला शरीर एक है। जिससे आत्मा ज्ञानादि गुण सम्पन्न होता है एवं शुद्ध होता है वह धर्मप्रतिमा या धर्म करने वाला शरीर एक है। वैमानिक और ज्योतिषी देवों को तथा भवनपति और वाणव्यन्तर असुरों को और मनुष्यों को उस उस समय में यानी एक समय में मनोयोग एक ही होता है। वैमानिक यावत् घाणव्यन्तर देवों को और मनुष्यों को उस उस समय में यानी एक समय में वचन योग एक ही होता है। विमानवासी यावत् वाणव्यन्तर देवों को और मनुष्यों को उस उस समय में काययोग का व्यापार एक ही होता है। विमानवासी यावत् वाणव्यन्तर देवों को और मनुष्यों को उस उस समय में यानी एक समय में कार्य के लिए उठना रूप उत्थान, कर्म यानी कार्य को ग्रहण करना, बल-शारीरिक सामर्थ्य, जीव की शक्ति रूप वीर्य, पुरुषकार यानी कार्य को पूर्ण करने रूप गर्व, पराक्रम यानी प्रारम्भ किये हुए कार्य को पार पहुंचा देना, ये सब उस उस समय में यानी एक समय में एक ही होते हैं। जानने रूप ज्ञान एक है। दर्शन यानी श्रद्धान एक है। चारित्र यानी मोहनीय कर्म के क्षय से होने वाला विरति रूप परिणाम एक है।
विवेचन - ऊपर कहे गये पदार्थों के उस उस अपेक्षा से अनेक भेद हैं किन्तु यहां सामान्य मात्र की विवक्षा होने से उनका एक एक भेद ही बतलाया गया है।
जीव और आत्मा पर्यायवाची शब्द है। भगवतीसूत्र शतक २० उद्देशक १७ में जीव के तेईस नाम बतलाए गए हैं। उनमें पहला नाम जीव है और दसवां नाम आत्मा है। शरीर और आयुष्य को धारण
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