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संकमाणुयोगद्दारे पयडिसंकमो सकसाओ। दसणमोहणीयं चरित्तमोहणीए ण संकमदि, चरित्तमोहणीयं पि दंसणमोहणीए ण संकमदि। कुदो? साभावियादो। सम्मामिच्छाइट्ठी दंसणमोहणीयस्स असंकामगो। एवं सासणो वि*। सम्मत्तस्स णियमा मिच्छाइट्ठी संकामगो जस्स आवलियबाहिरंसंतकम्ममत्थि। मिच्छत्तस्स संकामओ को होदि ? सम्माइट्ठी जस्स आवलियबाहिरं मिच्छत्तस्स संतकम्ममत्थि । सम्मामिच्छत्तस्स संकामगो को होदि? सम्माइट्ठी मिच्छाइट्ठी वा जस्स आवलियबाहिरं संतकम्ममत्थि । बारसण्णं कसायाणं णाणावरणभंगो। इथिवेदस्स संकामओ को होदि ? जाव इत्थिवेदो चरिमसमयअणुवसंतो चरिमसमयअक्खीणो वा। णqसयवेदस्स इत्थिवेदभंगो। पुरिसवेदस्स संकामगो को होदि ? जाव पुरिसवेदो पढमसमयउवसंतो पढमसमयखीणो वा । तिण्णं संजलणाणं पुरिसवेदभंगो। लोहसंजलणाए संकामओ को होदि ? उवसामया खवगा च जाव अंतरं चरिमसमयअकदं ति अक्खवय-अणुवसामओ च ।
चदुण्णमाउआणं संकमो णत्थि। कुदो ? साभावियादो। सव्वासि पि णामपयडीणं
है। दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीयमें संक्रान्त नहीं होती और चारित्रमोहनीय भी दर्शनमोहनीयमें संक्रान्त नहीं होती, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव दर्शनमोहनीयका असंक्रामक होता है । इसी प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि भी दर्शनमोहनीयका असंक्रामक होता है। सम्यक्त्वप्रकृतिका संक्रामक नियमसे मिथ्यादृष्टि जीव होता है, जिसके कि उसका सकर्म आवलीके बाहिर होता है। मिथ्यात्वका संक्रामक कौन होता है ? उसका संक्रामक सम्यग्दृष्टि होता है, जिसके मिथ्यात्वका सत्कर्म आवलिके बाहिर होता है। सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रामक कौन होता है ? उसका संक्रामक सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि होता है, जिसके उसका सत्कर्म आवलोके बाहिर होता है। बारह कषायोंके संक्रमणकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके समान है। स्त्रीवेदका संक्रामक कौन होता है ? स्त्रीवेदके अनुपशान्त रहनेके अन्तिम समय तक अथवा उसके अक्षीण रहने के अन्तिम समय तक जीव उसका संक्रामक होता है। नपुंसकवेदके संक्रमणकी प्ररूपणा स्त्रीवेदके समान है । पुरुषवेदका संक्रामक कौन होता है ? पुरुषवेदके उपशान्त होने के प्रथम समय तक अथवा उसके क्षीण होने के प्रथम समय तक जीव उसका संक्रामक होता है । तीन संज्वलनोंके संक्रमणकी प्ररूपणा पुरुषवेदके समान है। संज्वलन लोभका संक्रामक कौन होता है ? उसके संक्रामक उपशामक और क्षपक जीव अन्तर न किये जानेके अन्तिम समय तक होते हैं, अक्षपक व अनुपशामक जीव भी उसके संक्रामक होते हैं।
चार आयु कर्मोका संक्रम नहीं होता, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। यशकीतिको छोडकर
मोहदुगाउग-मूल ग्यडीण न परोप्परंमि संकमणं । संकम-बंध दउब्वट्टणा (णव) लिगाईणकरणाई। क प्र. २, ३. * मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिषु 'सामगो वि ' इति पाठः । तथा सासादनाः सम्यग्मिथ्यादष्टयश्च न किमपि दर्शनमोहनीयं क्वापि संक्रमयन्ति, अविशद्धदष्टित्वात । बन्धाभावे हि दर्शनमोहनीयस्य
संक्रमो विशुद्धदृष्टेरेव भवति, नाविशुद्धदृष्टः। क. प्र. (मलय.) २, ३. ताप्रतौ 'तिसंजलणाणं' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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