Book Title: Shatkhandagama Pustak 16
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 274
________________ अप्पाबहुअणुयोगद्दारे उत्तरपयडिसंतक्रम्मदंडओ पुव्वफद्दयाणमसंखेज्जदिभागो अपुव्वफद्दयाणि । एवमपुव्वफद्दयकरणं समत्तं । एतो अंतमुत्तं किट्टीओ करेदि । अपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणमसंखेज्जदिभागमोकडुदि । जीवफद्दयपदेसाणं असंखेज्जदिभागमो कड्डिज्जदि । अंतमुत्तं किट्टीओ करेदि असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए । जीवपदेसे असंखेज्जगुणाए सेडीए ओकडदि । किट्टीदो किट्टीए गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । किट्टीओ सेडीए असंखेज्जदिभागो, अपुव्वफद्दयाणमसंखेज्जदिभागो । किट्टिकरणे णिट्ठिदे तदो से काले अपुव्वफद्दयाणमसंखेज्जदिभागो णस्सेदि । अंतोमुहुत्तं किट्टिग * दजोगो सुमकिरियं अपडिवादि झाणं झायदि । किट्टीणं चरिमसमए असंखेज्जा भागा सिंति | जोगम्हि णिरुद्धम्हि आउअसमाणि कम्माणि ( करेदि ) । तदो अंतोमुहुत्तं सेलेसि पडिवज्जदि, समुच्छिष्ण किरियं अणियट्टिझाणं ज्ञायदि । सेलेसि पडिवज्जदि किमपि सिद्धिं गच्छदि । एवं पच्छिमक्खंधे त्ति समत्तमणुओगद्दारं । अप्पा हुए ति जमणुओगद्दारं एत्थ महावाचयखमासमणा संतकम्ममग्गणं करेदि । उत्तरपयडिसंतकम्मेण दंडओ । तं जहा- सव्वत्थोवा आहारसंतकम्मिया । सम्मतस्स संतकम्मिया असंखेज्जगुणा । सम्मामिच्छत्तस्स संतकम्मिया विसेसाहिया । * प्रतिषु 'मोवदृदि' इति पाठ: । ] अ-काप्रत्योः '- भागो', ताप्रती - भागो प्रतिषु ' कदं' इति पाठः । अ-काप्रत्योः 'पडिवादि ' इति पाठः । ' संति' इति पाठ: । अ-का- प्रत्यो: 'संतकम्मं मग्गणं ' इति पाठः । आहार० संतकम्मिय' इति पाठः । * ( पूर्वस्पर्धकों के असंख्यातवें भाग होते हैं । इस प्रकार अपूर्वस्पर्धककरण समाप्त हुआ । यहां अन्तर्मुहूर्त कृष्टियोंको करता है - अपूर्वस्पर्धकोंकी आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करता है । जीवस्पर्धक प्रदेशों के असंख्यातवें भागका अपकर्षण करता है । अन्तर्मुहूर्त काल असंख्यातगुणी हीन श्रेणिसे कृष्टियोंको करता है । जीवप्रदेशों का असंख्यातगुणित श्रेणिसे अपकर्षण करता है । कृष्टिसे कृष्टिके गुणकारका प्रमाण पत्योपमका असंख्यातवां भाग है । कृष्टियां श्रेणिके असंख्यातवें भाग और अपूर्वस्पर्धकोंके असंख्यातवें भाग मात्र होती हैं । कृष्टिकरणके समाप्त होनेपर तदनन्तर कालमें अपूर्वस्पर्धकों ( और पूर्व - स्पर्धकों ) के असंख्यातवें भाग का नाश करता है । अन्तर्मुहूर्त कृष्टिगतयोग होकर सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यानको ध्याता है । कृष्टियोंके अन्तिम समय में असंख्यात बहुभाग नष्ट हो जाता है योगके निरुद्ध हो जानेपर कर्मोंको आयुके बराबर करता है । तलश्चात् अन्तर्मुहूर्त में शैलेश्यभावको प्राप्त होता है व समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति ध्यानको ध्याता है । शैलेश्यभावको प्राप्त हुआ कि कर्मोंसे रहित होकर सिद्धिको प्राप्त होता है। इस प्रकार पश्चिस्कन्ध अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । जो 'अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार है यहां महावाचक क्षमाश्रमण ( नागहस्ती ) सत्कर्ममार्गणाको करते हैं । उत्तरप्रकृतिसत्कर्मदण्डककी प्ररूपणा इस प्रकार है- आहारसत्कमिक सबसे स्तोक हैं । सम्यक्त्व के सत्कर्मिक असंख्यातगुणे हैं । सम्यग्मिथ्यात्व के सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं I 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only ५७९ ( णस्सदि ) ।' इति पाठ: । अप्रतौ 'णसति', काप्रती अ-काप्रत्यो: ' सव्वत्थोवं www.jainelibrary.org

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