Book Title: Shatkhandagama Pustak 16
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 275
________________ ५८० ) छक्खंडागमे संतकम्म मणुस्साउअस्स संतकम्मिया असंखेज्जगुणा। णिरयाउअस्स संतकम्मिया असंखेज्जगुणा। देवाउअस्स संतकम्मिया असंखेज्जगुणा। देवगइसंतकम्मिया असंखेज्जगुणा । णिरयगइसंतकम्मिया विसेसाहिया। वेउब्विय० विसेसाहिया। उच्चागोद० अणंतगुणा । मणुसगइ. विसे । तिरिक्खाउअस्स० विसे० । अणंताणुबंधिउक्क० ( विसे० ) । मिच्छत्त० विसे० । अटकसायाणं० विसे० । थीणगिद्धितिय० तिरिवखगइणामाए. विसे । णवंसयवेद० विसे० । इत्थि० विसे । छण्णोकसाय० विमे० । पुरिस० विसे०। कोहसंजल. विसे० । माणसंज. विसे० । मायासंज. विसे० । लोभसंज० विसे० । णिद्धा पयलाणं विसे० । पंचणाणावरण-चउदसणावरण-पंचतराइयाणं तुल्ला विसेसाहिया । ओरालिय-तेजा-कम्मइय-अजसकित्ति-णीचगोदाणं विसे० । असादस्स० विसे । साद० विसे० । जसकित्तीणं (?) विसे । एवमोघदंडओ समत्तो। मोहणीयस्स पयडिट्ठाणसंतकम्मेण सव्वत्थोवा पंचसंतकम्मिया । एक्किस्से विसेसाहिया । दोण्हं विसेसा० । तिण्हं विसे० । एक्कारसण्हं विसे०। बारसण्हं विसे। चउण्हं० तेरसण्हं संखेज्जगुणं । वावीसाए संखे० गुणं । तेवीसाए संखे० गुणं। मनुष्यायुके सत्कमिक असंख्यातगुणे हैं। नारकायुके सत्कमिक असंख्यातगुणे हैं। देवायुके सत्कमिक असंख्यातगुणे है । देवगति नामकर्मके सत्कमिक असंख्यातगुणे हैं। नरकगति नामकर्मके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। वैक्रियिकशरीर नामकर्मके सत्कमिक विशेष अधिक हैं। उच्चगोत्रके सत्कमिक अनन्तगुणे हैं। मनुष्यगति नामकर्मके सत्कमिक विशेष अधिक हैं। तिर्यगायुके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। अनन्तानुबन्धिचतुष्कके सत्कमिक विशेष अधिक हैं। मिथ्यात्वके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। आठ कषायोंके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। स्त्यानगृद्धित्रिक और तिर्यग्गति नामकर्मके समिक विशेष अधिक है। नपुंसकवेदके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं । स्त्रीवेदके सत्कमिक विशेष अधिक हैं। छह नोकषायोंके सत्कमिक विशेष अधिक हैं। पुरुषवेदके सत्कत्मिक विशेष अधिक हैं। संज्वलन क्रोधके सत्कत्मिक विशेष अधिक हैं। संज्वलन मानके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। संज्वलन मायाके सत्ककिम विशेष अधिक हैं। संज्वलन लोभके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। निद्रा और प्रचलाके सत्कमिक विशेष अधिक हैं। पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तरायके सत्कमिक तुल्य व विशेष अधिक हैं। औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, अयशकीर्ति और नीचगोत्रके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। असातावेदनीयके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। सातावेदनीयके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। यशकीतिके सत्कमिक विशेष अधिक हैं। इस प्रकार ओघदण्डक समाप्त हुआ। मोहनीयके प्रकृतिस्थानसत्कर्मकी अपेक्षा पांच प्रकृतिरूप स्थानके सत्कमिक सबमें स्तोक हैं। एकके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। दोके विशेष अधिक हैं । तीनके विशेष अधिक हैं । ग्यारहके विशेष अधिक हैं। बारहके विशेष अधिक हैं। चारके विशेष अधिक हैं। तेरहके संख्यातगुणे है । * अ-काप्रत्यो!पलभ्यते वाक्यमिदम् । ४ अका-प्रत्योः 'पंचसम्मत्तधम्मिया', तापतो 'पंचसम्मतधम्मिय (पंचसंतकम्मिया)' इति पाठ:1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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