Book Title: Shatkhandagama Pustak 16
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 303
________________ १५) परिशिष्ट अप्रत्यख्यानावरणदण्डक अभिशुख अर्थ १३.२०९/ अचिमालिनी १३-१४१ ८-२५१; २७४ | अभिव्यक्तिजनन ४-३२२/ अर्थ ४-२००; ५-१९४; अप्रत्यख्यानावरणीय ६-४४ | अभीक्ष्ण अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग १३-२, १४-८ अप्रत्यय ८८ | युक्तता ८-७९,९१ | अर्थकर्ता ९-१२७ अप्रदेश १४-५४| अभेद ४-१४४| अर्थक्रिया ९-१४२ अप्रदेशिक ३-३ | अभ्याख्यान १-११६; अर्थनय १-८६; ९-१८१ अप्रदेशिकानन्त ३-१२४ १२-२८५ अर्थनिबन्धन १६-२ अप्रदेशिकासंख्यात ३-१५,१६ | अभ्र १४-३५ अर्थपद ४-१८७; ९-१९६, अप्रधानकाल ४-१४४ १०-१८, ३७१, १२-३; अप्रमत्त ७-१२ अमूर्तत्त्व ६-४९० अप्रमत्तसंयत १-१७८;८-४ | अमूर्त द्रव्यभाव १२-२| अर्थपरिणाम ६.९० अप्रमाद १४-८९ अमृतस्रवी ९-१०१ अर्थपर्याय ९-१४२, १७२ अप्रवद्यमानोपदेश १०-२९८ | अयन ४-३१७; ३९५; अर्थसम ९-२५९,२६१,२६८; अप्रवीचार १-३३९ १३-२९८, ३००; १४-३६| ५३-२०३; १४-८ अप्रशस्त तैजसशरीर ४.२८ अयशःकीत्ति ८-९| अर्थाधिकार ९-१४० ७-३०० अयश:कीत्ति नाम १३-३६३,| अर्थापत्ति ६-९६,९७,७-८, अप्रशस्त विहायोगति ६-७६ ३६६ ८-२७४९-२४३; १२-१७, अप्रशस्तोपशामना अयोग १-१९२; ७-१८ अर्थावग्रह १-३५४, ६-१६) ६-२५४,१६-२७६ अयोगकेवली १-१९२ | ९-१५६; १३-२२० अप्रशस्तोपशामनाकरण अयोगवाह १३-२४७ अर्थावग्रहावरणीय १३-२१९ ६-२९५,३३९ | अयोगव्यवच्छेद ११-२४५) २२० अबद्धप्रलाप १-११७ ३१७| अर्धच्छेद ३-२१, १०-८५ अबद्धायुष्क ६-२०८ अयोगिकेवली अर्धच्छेदशलाका ३-३३५ अबंधक ७-८ | अयोगी १-२८०, ४-३३६, अर्धतृतीयक्षेत्र ४-३७. १६९ अभव्य १-३९४;७-२४२; ७-८, ७८; १०-३२५ अर्धतृतीयद्वीपसमुद्र ४-२१४ १०-२२; १४-१३ अरति ६-४७;८-१०; अर्धनाराचशरीरसंहनन ६-७४ अभव्य समान भव्य ७-१६२, १३-३६१ अर्धनाराचसंहनन ८-१०; १७१, १७६; १०-२२ अरतिवाक् १-११७ १३-३६९, ३७० अभब्यसिद्धिक ७-१०६; | अरहःकर्म १३-३४६, ३५० | अर्धपुद्गलपरिवर्तन ५-११; ८-३५९ अरहन्तभक्ति ८-७९, ८९/ अभाग ७-४९५ अरिहन्त १-४२, ४३ अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल अभिजित ४-३१८| अरुण ४.३१९ ३-२६, २६७ अभिधान ५-१९४ | अरूपी १४-३२ अर्धमण्डलीक १-५७ अभिधाननिबन्धन १६-२ | अरूपी अजीव द्रव्य ३-२, ३, अर्धमास १३-३०७ अभिधेय ८-१ अरंजन १३-२०४| अर्पणासूत्र ८-१९२,१९९,२०० अभिन्नदशपूर्वी ८-९२ अर्पित ४-३९३,३९८; ५-६३, अभिनिबोध ६-१५ अचि १३-११५, १४१ | Jain Education International For Private & Personal Use Only ९-६९| अर्चना ८-५ www.jainelibrary.org.

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