Book Title: Shatkhandagama Pustak 16
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 255
________________ ५६० ) छक्खंडागमे संतकम्म ओहिदसण. विसे० । अचक्खु० विसे० । चक्खु० विसे । उच्चागोद० संखेज्जगुणं । णिरयगइ० असंखे० गुणं । जसकित्ति० असंखे० गुणं । असादे० संखे० गुणं । णीचागोदे० विसे० । तिरिक्खगदीए० असंखे० गुणं । हस्से० संखे० गुणं । रदीए० विसेसाहियं । इत्थि संखे । सोगे० विसे० । अरदि० विसे० । णवूस० विसे० । दुगुंछ० विसे । भय० विसे० । पुरिस० संखे० गुणं । कोह० संखे० गुणं । लोह, संखे० गुणं । माण० विसे०। माय० विसेसाहियं । एवमोघदंडओ समत्तो। णिरयगदीए जं पदेसग्गं संकामिज्जदि सम्मत्ते तं थोवं। सम्मामिच्छत्ते० असंखे० गुणं। अपच्चक्खाणमाणे० असंखे० गुणं । कोहे० विसे० । मायाए० विसे० । लोहे० विसे० । पच्चक्खाणमाणे विसे० । कोहे० विसे० । मायाए० विसे० । लोहे० विसे० । केवलणाणा विसे०। पयला०विसे । णिद्दा० विसे०। पयलापयला० विसे० । णिहाणिद्धा० विसे० । थोणगिद्धि० विसे० । केवलदंस० विसे० । मिच्छत्ते० असंखे० गुणं । अणंताणुबंधिमाणे असंखे० गुणं । कोहे० विसे० । मायाए० विमे० । लोहे. विसे० । णिरयगदीए. अणंतगुणं । वेउव्विय० असंखे० गुणं । देवगइ० संखे० गुणं । वरणमें विशेष अधिक है। अचक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। चक्षुदर्शनावरणमें विशेष अधिक है। उच्चगोत्रमें संख्यातगुणा है । नरकगतिमें असंख्यातगुणा है । यशकीति में असंख्यातगुणा है । असातावेदनीयमें संख्यातगुणा है। नीचगोत्र में विशेष अधिक है। तिर्यग्गतिमें असंख्यातगुणा है । हास्यमें संख्यातगुणा है । रति में विशेष अधिक है। स्त्रीवेदमें संख्यातगुणा है। शोकमें विशेष अधिक है। अरतिमें विशेष अधिक है। नपुंसकवेद में विशेष अधिक है । जुगुप्सामें विशेष अधिक है। भयमें विशेष अधिक है। पुरुषवेदमें संख्यातगुणा है । क्रोध में संख्यातगुणा है। लोभमें संख्यातगुणा है। मान में विशेष अधिक है। मायामें विशेष अधिक है । इस प्रकार ओघदण्डक समाप्त हुआ। ____ नरकगति में जो प्रदेशाग्र सम्यक्त्व प्रकृतिमें संक्रांत होता है वह स्तोक है । सम्यग्मिथ्यात्वमें उससे असंख्यातगणा है। अप्रत्याख्यानावरण मानमें असंख्यातगणा है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध में विशेष अधिक है। अप्रत्याख्यानावरण माया में विशेष अधिक है। अप्रत्याख्य वरण लोभमें विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मान में विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण क्रोधमें विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण मायामें विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण लोभमें विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरणमें विशेष अधिक है। प्रचलामें विशेष अधिक है । निद्रामें विशेष अधिक है । प्रचलाप्रचलामें विशेष अधिक है । निद्रानिद्रामें विशेष अधिक है। स्त्यानगृद्धि में विशेष अधिक है। केवलज्ञानावरण में विशेष अधिक है। मिथ्यात्वमें असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धी मानमें असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धी क्रोधमें विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी मायामें विशेष अधिक है। अनन्तानुबन्धी लोभमें विशेष अधिक है। नरकगतिम अनन्तगुणा है। वैक्रियिकशरीरमें असंख्यातगुणा है। देवगतिमें संख्यातगुणा है। आहार JainEducation International का-मप्रतिपाठोऽयम्। अ-ताप्रत्यो: 'विसे०'इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..

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