Book Title: Shatkhandagama Pustak 16
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 268
________________ अपाबहुअणुयोगद्दारे लेस्साकम्माणुयोगद्दारं ( ५७३ अहिसरदि, पम्माए वा संकमदि द्वाणे अनंतगुणे । पम्मादो संकिलिस्संतो सट्टाणे छाणपाणि ओसरइ, तेउं वा संकमदि ट्ठाणे अनंतगुणहोणे; विसुज्झतो सट्टाणे छाणपदिदाणि ओसरदि, सुक्कं वा संकमइ ट्ठाणे अनंतगुणे । सुक्कादो संकिलिसंतो ट्ठाणे छाणपदिदाणि ओसरइ, पम्मं वा संकमदि द्वाणे अनंतगुण होणे ; विसुज्झतो ण कहिं पि संकमदि । किण्हणीलाओ अप्पिदाओ कट्टु णीलाए द्वाणं जहण्णयं थोवं पडिग्गहद्वाणं * पोलाए जहण्णयमणंतगुणं । किण्हाए जहण्णयं द्वाणं संकमट्ठाणं च अनंतगुणं । णीला ए जहणयं संकट्ठा जमणंतगुणं । किण्हाए जहण्णयं पडिग्गहट्ठाण मणंतगुणं । णीलाए उक्कस्सयं पडिग्गहट्ठाणमणंतगुणं । किण्हाए उक्कस्सयं संकमट्ठाणमणंतगुणं । णीलाए उक्कस्यं संकट्ठाणं उक्कस्सयं संकिलेसट्ठाणं च अनंतगुणं । किन्हाए उक्कस्सय डिग्गट्ठाण मतगुणं । किण्हाए उक्क ट्ठाणमणंतगुणं । लेस्सठाणाणि छट्ठाणपदिदाणि असंखेज्जा लोगा । तत्थ काऊए ट्ठाणाणि थोवाणि । णीलाए ट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । किन्हाए ट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । ऊए ट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । पम्माए ट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि । सुक्काए ाणाणि असंखेज्जगुणाणि । एवमेसो समत्तो दंडओ । छह स्थानों में ऊपर जाता है, अथवा अनन्तगुण पद्मलेश्या के परस्थानमें संक्रमण करता है । पद्मलेश्या से संक्लेशको प्राप्त होकर स्वस्थानमें छह स्थानोंमें नीचे गिरता है, अथवा अनन्तगुणी हीन परस्थानभूत तेजलेश्या में संक्रमण करता है। उससे विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ स्वस्थानमें छह स्थानों में ऊपर जाता है, अथवा अनन्त गुणी परस्थान भूत शुक्ललेश्या में संक्रमण करता है । शुक्ललेश्यासे संक्लेशको प्राप्त होकर स्वस्थान में छह स्थानों में नीचे गिरता है, अथवा अनन्तगुणी होन परस्थानभूत पद्मलेश्यामे संक्रमण करता है। उससे विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ कहीं पर भी संक्रमण नहीं करता है । कृष्ण और नील लेश्याओंकी विवक्षा करके नीलका जघन्य स्थान स्तोक है | नीलका जघन्य प्रतिग्रहस्थान उससे अनन्तगुणा है । कृष्णका जघन्य स्थान और संक्रमस्थान अनन्तगुणा है | नीलका जघन्य संक्रमस्थान अनन्तगुणा है । कृष्णका जघन्य प्रतिग्रहस्थान अनन्तगुणा है | नीलका उकृष्ट प्रतिग्रहस्थान अनन्तगुणा है । कृष्णका उत्कृष्ट संक्रमस्थान अनतगुणा है | नीलका उत्कृष्ट संक्रमस्थान और उत्कृष्ट मंक्लेशस्थान अनन्तगुणा है । कृष्णका उत्कृष्ट प्रतिग्रहस्थान अनन्तगुणा है । कृष्णका उत्कृष्टस्थान अनन्तगुणा है । छह स्थान पतित लेश्यास्थानोंका प्रमाण असंख्यात लोक है । उनमें कापोतलेश्या के स्थान स्तोक हैं । नीललेश्याके स्थान असंख्यातगुणे हैं । कृष्णलेश्याके स्थान असंख्यातगुणे हैं । तेजलेश्याके स्थान असंख्यातगुणे हैं । पद्मलेश्याके स्थान असंख्यातगुणे हैं । शुक्ललेश्याके स्थान असंख्यातगुणे हैं । इस प्रकार यह दण्डक समाप्त हुआ । 1 1 ताप्रती 'छट्टाणपदाणि ' इति पाठ: । अ-काप्रत्यो: 'पओग्गहणं ' ताप्रती 'पओ (डि) ग्गहद्वाणं' इति पाठ: । * तातो 'किण्हाए उक्क० मणंतगुणं, किण्हाए. अनंतगुणं' इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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