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संकमाणुयोगद्दारे अणुभाग संकमो
( ३७५
अघादिकम्मफद्द एहि सह निरंतरं गंतूण दारुसमाणम्हि देसघादिम्हि णिट्टियाणि । सम्मत्त उक्कस्सफद्दयादो सम्मामिच्छत्तस्स पढमफद्दयमणंतगुणं । कुदो ? केवलणाणावरणादिफद्दयस माणत्तादो । तदो निरंतराणि अनंताणि सम्मामिच्छत्त फद्दयाणि गंतूण दारुसमाणफद्दयाणमणंतिम भागे चेव णिट्टिदाणि । तदो उवरिमाणंतरफद्दयं मिच्छत्तस्स जहण्णफद्दयं होदि* । तं च सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सदारुस माणफद्दयादो अनंतगुणं घादिकम्माणमादिफद्दएहि असवाणं । एवं सव्वक्रम्माणं पि आदिफद्दय
परूवणा कदा |
तो अट्ठपदं - ओडिदो वि अगुभागो अणुभागसंकमो, उक्कडिदो वि अणुभागो अणुभाग कमी, अण्णपर्याड णीदो वि अणुभागो अणुभागसंकमो* । आदिफद्दयं ण ओडिज्जदि । आदिफद्दयादा जत्तियो जहण्णओ णिक्खेवो एत्तियमेत्ताणि फद्दयाणि
ओकड्डुिज्जति । तदो उवरिमफद्दयं पिण ओकड्डिज्जदि, अधिच्छावणाभावादो । तदो जत्तियाणि जहणणिक्खेवफद्दयाणि जत्तियाणि जण अधिच्छावणाफद्दयाणि च एत्तियमेत्ताणि फद्दयाणि पढमफद्दय पहुडि उर्वारं चडियूण द्विदं जं फद्दयं तमोकड्डिज्जदि,
अघाति कर्मो के स्पर्धकों के साथ निरन्तर जाकर दारु समान देशघातिमें समाप्त होते हैं । सम्यक्त्वके उत्कृष्ट स्पर्धककी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्व का प्रथम स्पर्धक अनन्तगुणा है, क्योंकि, वह केवलज्ञानावरणके आदि स्पर्धकके समान है । उसके आगे सम्यग्मिथ्यात्व के अनन्त स्पर्धक निरन्तर जाकर दारु समान स्पर्धकोंके अनन्तवें भाग में ही समाप्त हो जाते हैं । उसके आगेक अनन्तर स्पर्धक मिथ्यात्वका जघन्य स्पर्धक होता है । वह सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कष्ट दारु समान स्पर्धककी अपेक्षा अनन्तगुणा होकर घाति कर्मोंके आदि स्पर्धकोंके समान नहीं होता । इस प्रकार सब कर्मों के ही आदि स्पर्धकोंकी प्ररूपणा की गयी है ।
यहां अर्थपद - अपकर्षणको प्राप्त हुआ भी अनुभाग अनुभागसंक्रम है, उत्कर्षणको प्राप्त हुआ भी अनुभाग अनुभागसंक्रम है, और अन्य प्रकृतिको प्राप्त कराया गया भी अनुभाग अनुभागसंक्रम है। आदि स्पर्धकों का अपकर्षण नहीं होता है । आदि स्पर्धकसे लेकर जितना जघन्य निक्षेप है, इतने मात्र स्पर्धकों का भी अपकर्षण नहीं किया जाता है । उनसे ऊपर के स्पर्धकका भी अपकर्षण नहीं किया जाता है, क्योंकि, अतिस्थापनाका अभाव है । इसलिये जितने जघन्य निक्षेपस्पर्धक हैं और जितने जघन्य अतिस्थापनास्पर्धक हैं इतने मात्र स्पर्धक प्रथम स्पर्धकसे लेकर ऊपर चढकर जो स्पर्धक स्थित है उसका अपकर्षण किया जाता है, क्योंकि, अतिस्थापनारूप व निक्षेपरूप स्पर्धकोंकी सम्भावना पायी जाती है ।
सव्वेसु देसघासु सम्मत्तं तदुर्वारं तु वा मिस्गं । दाहनमाणसानंतिमोत्ति मिच्छत मुप्पिमओ ॥ क. प्र. २, ४५. * अणुभागो आकडिदो वि संकमो उक्कडिदो वि संकमो अण्गपड णीदो वि सकमो । क पा. सु. पू. ३४५, १ तत्थनयं उब्वाट्टया व ओवट्टया व अविभाषा । अगुभागसंकमो एस अण्णपगइं णिया बावि ॥ क. प्र. २, ४६. प्रति 'आदिकदयागं ओकड्डिज्जदि ' इति पाठः । तातो 'फडवाणि ओडिज्जति ' इति पाठः ।
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