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संकमा गद्दारे अणुभाग संक्रमो
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असंखेज्जत्रासाउअतिरिक्ख- मणुसमिच्छा इट्ठीसु वि विज्झादसंकमो चेव बंधाभावादो । अपुव्वकरणपढमसमयप्पहूडि जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमयो त्ति ताव गुणसंकमो' बंधाभावादो । उवरि असंकमो, पडिग्गहाभावादो ।
चदुसंठाग-च दुसंघडण - भग- दुस्सर अगादेज्ज-णीचा गोद - अय्य सत्य विहायगदीगं मिच्छाइट्ठिष्पहूडि जाव सासणसम्माइट्ठिति ताव अधापवत्तसंकमो । उवरि जाव अप्पमत्त संजदचरिमसमयो त्ति ताव विज्झादसंकमो, बंधाभावादो । अपुव्वकरणपढमसमय पहुडि जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमयो त्ति ताव गुणसंकमो, अप्पसत्थतादो । उवरि असंमो, पडिग्गहाभावादो । एवमपज्जत्तस्स वि । णवरि मिच्छाइट्ठम्हि चेव एदस्स अधापवत्तसंकमो । अजसकित्तीए अपज्जत्तभंगो | णवरि मिच्छाइट्टि पहुडि जाव पनत्तसंजदो त्ति एदिस्से अधापवत्तसंकमो, एदेसु गुणट्ठाणेसु बंधुवलंभादो ।
मिच्छत्तस्स विज्झादसंकमो गुणसंक्रमो सव्वसंकमो चेदि तिणि संकमा । तं जहापढसमय पहुडि जाव अंतोमुहुत्तकालं उवसमसम्माइट्ठिम्हि मिच्छत्तस्स गुणसंकमो । खवणाए वि अपुव्वकरणपढमसमयप्पहूडि जाव च मट्ठिदिखंडयदुचरिमफालि त्ति गुण
संक्रम होता है, क्योंकि, वहां इनका बन्ध नहीं होता । असंख्यातवर्षायुष्क तिर्यंच व मनुष्य मिथ्यादृष्टियों में भी उनका विध्यातसंक्रम ही होता है, क्योंकि, उनके इनका बन्ध नहीं होता । अपूर्वकरण के प्रथम समयसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय तक उनका गुणसंक्रम होता है, क्योंकि, वहां पर इनके बन्धका अभाव है। आगे उनका संक्रम नही होता, क्योंकि, प्रतिग्रह प्रकृतियोंका अभाव है ।
चार संस्थान, चार संहनन, दुभंग, दुस्वर, अनादेय, नीचगोत्र और अप्रशस्त विहायो - गति इनका मिथ्यादृष्टिसे लेकर सासादनसम्यग्दृष्टि तक अधःप्रवृत्तसंक्रम होता है। आगे अत्रमत्तसंयतके अन्तिम समय तक उनका विध्यातसंक्रम होता है, क्योंकि, आगे उनका बन्ध नहीं होता । अपूर्वकरण के प्रथम समयसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय तक उनका गुणहोता है, क्योंकि, वे अप्रशस्त प्रकृतियां हैं। आगे उनका संक्रम नहीं है, क्योंकि, प्रतिग्रह प्रकृतियोंका अभाव है । इसी प्रकार अपर्याप्त नामकर्मके भी विषय में कहना चाहिये । विशेष इतना है कि इसका अधःप्रवृत्तसंक्रम केवल मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही होता है ।
अयशकीर्तिकी प्ररूपणा अपर्याप्त के समान है । विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयत तक इसका अधः प्रवृत्तसंक्रम होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानों में उसका बन्ध पाया जाता है ।
मिथ्यात्व प्रकृति के विध्यातसंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम ये तीन संक्रम होते हैं । यथा- प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यात्वका गुणसंक्रम होता है । क्षपणा में भी अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम स्थितिकाण्डककी
अ-काप्रत्योः 'तिष्णिसंकमो' इति पाठः । मिच्छते । विज्झाद-गुणे सव्वं XXX ।। गो क. ४२३.
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