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छक्खंडागमे संतकम्म णामस्स जसकित्ति बंधमाणस्स पयडिरहस्सं, तदुवरि णोपयडिरहस्सं । गोद-वेयणीयाणं बंध पडुच्च णत्थि पयडिरहस्सं, उच्च-णीचागोदाणं सादासादवेदणीयाणं च अक्कमेण बंधाभावादो । एवं पयडिरहस्सं गदं ।
द्विदिरहस्सं दुविहं मूलपयडिटिदिरहस्सं उत्तरपयडिटिदिरहस्सं चेदि । तत्थ मूलपयडिटिदिरहस्से च पयदं- णाणावरणीय-दसणावरणीय-मोहणीय-आउअ-अंतराइयाणं अंतोमुहुत्तट्ठिदि बंधमाणस्स ट्ठिदिरहस्सं, तदुवरि बंधमाणस्स णोटिदिरहस्सं । वेदणीयस्स बारसमुहत्तं टिदि बंधमाणस्स टिदिरहस्सं, तदुवरि णोट्ठिदिरहस्सं । णामा-गोदाणमट्टमहत्तं टिदि बंधमाणस्स टिदिरहस्सं, तदुवरि णोटिदिरहस्सं । संत पडुच्च सव्वासि पयडीणमेयट्ठिदिसंतकम्मस्स ट्ठिदिरहस्सं, तदुवरि णोटिदिरहस्सं ।
उत्तरपयडीसु पयडं- बंधं पडुच्च द्विदिरहस्से भण्णमाणे जहा जीवट्ठाणचूलियाए उत्तरपयडीणं जहण्णट्ठिदिपरूवणा कदा तहा कायव्वा । संपदि संतं पडुच्च वुच्चदे । तं जहा-पंचणाणावरणीय- णवदसणावरणीय--सादासाद-सम्मत्त- मिच्छत्त-सम्मा
परभविक आयुके बन्धसे रहित जीवके एक ही आयुका सत्त्व पाया जाता है। नामकर्मकी यशकीर्तिको बाधनेवालेके प्रकृतिह स्व है, उससे अधिक बांधनेवालेके नोप्रकृतिह स्व है । गोत्र और वेदनीय कर्मोके बन्धकी अपेक्षा प्रकृतिह स्व नहीं है, क्योंकि, उच्च व नीच गोत्रोंका तथा साता व असाता वेदनीयोंका युगपत् बन्ध सम्भव नहीं है । इस प्रकार प्रकृतिह स्व समाप्त हुआ।
स्थितिह स्व दो प्रकारका है-- मूलप्रकृतिस्थितिह म्य और उत्तरप्रकृतिस्थितिह, स्व . इनमें मूलप्रकृतिस्थितिह, स्वका प्रकरण है-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, आयु और अन्तरायकी अन्तर्मुहर्त स्थितिको बांधनेवालेके स्थितिह स्व है; इससे अधिक स्थितिको बांधनेवालेके नोस्थितिह स्व है। वेदनीयकी बारह मुहूर्त मात्र स्थितिको बांधनेवालेके स्थितिह स्व है, उससे अधिक स्थितिको बांधनेवालेके नोस्थितिह स्व है । नाम और गोत्रकी आठ मुहुर्त मात्र स्थितिको बांधनेवालेके स्थितिह स्व है, उससे अधिक बांधनेवालेके नोस्थितिह स्व है। सत्त्वकी अपेक्षा सब प्रकृतियोंके एक स्थितिसत्कर्म सहितक स्थिति-हस्व है, उससे अधिक सत्कर्मवालेके नोस्थितिह, स्व है।
उत्तर प्रकृतियोंका प्रकरण है- बन्धकी अपेक्षा स्थितिह स्वका कथन करने पर जैसे जीवस्थानकी चूलिकामें उत्तर प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका कथन किया गया है वैसे ही यहां उसका कथन करना चाहिये ।
अब सत्त्वकी अपेक्षा स्थितिह, स्वका कथन करते हैं । यथा- पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, तेरह कषाय,
४ ताप्रती ' रहस्सेह च ' इति पाठः । 0 प्रतिषु 'सतकम्मं से सट्ठिदिरहस्सं ' इति पाठः ।
प्रतिष 'तं ' इति पाठः ।
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