________________
१८ भवधारणीयाणुयोगद्दारं तिहुवणसुरिंदवंदियमहिवंदिय तिहुवणाहिवं सुदि ।
भवधारणीय ममलं अणुयोगं वण्णइस्सामो ॥ १॥ भवसंधारणदाए *त्ति अणुयोगद्दारे अत्थि भवो तिविहो । तं जहा- ओघभवो आदेसभवो भवग्गहणभवो चेदि । तत्थ ओघभवो णाम अटुकम्माणि अटुकम्मणिदजीवपरिणामो वा । आदेसभवो णाम चत्तारि गइणामाणि तेहि जणिदजीवपरिणामो वा । सो आदेसभवो चउविहो णि यभवो तिरिक्खभवो मणुसभवो देवभवो चेदि । भवग्गहणभवो णाम गलिदभुज्जमाणाउअस्स उदिण्णअपुवाउकम्मस्स पढमसमए उप्पण्णजीवपरिणामो वंजणसण्णिदो पुव्वसरीरपरिच्चारण उत्तरसरीरगहणं वा भवग्गहणभवो णामा तत्थ भवग्गहणभवेण पयदं- कधममुत्तस्स जीवस्स मुत्तेण सरीरेण सह बंधो? ण एस दोसो, मुत्तट्टकम्मजणिदसरीरेण अणाइणा संबद्धस्स जीवस्स * संसा रावस्थाए सव्वकालं तत्तो अपुधभूदस्स तस्संबंधेण मुत्तभावमुवगयस्स सरीरेण सह
तीन लोकके देवों व इंद्रों वन्दित ऐसे तीन लोकके स्वामी सुमति जिनेन्द्रकी वन्दना करके निर्मल भवधारणीय नामक अनुयोगद्वारका वर्णन करते हैं ।। १ ।।
'भवसंधारणता' इस अनुयोगद्वारमें भव तीन प्रकारका है । यथा- ओघभव, आदेशभव और भवग्रहणभव । इनमें आठ कर्मों अथवा आठ कर्म जनित जीवके परिणामका नाम ओघभव है। चार गतिनामको या उनसे उत्पन्न जीवपरिणामको आदेशभव कहते हैं । वह आदेशभव चार प्रकारका है- नरकभव, तिर्यंचभव, मनुष्यभव और देवभव । भुज्यमान आयुको निर्जीण करके जिसके अपूर्व आयु कर्म उदयको प्राप्त हुआ है उसके प्रथम समयमें उत्पन्न ' व्यंजन ' संज्ञावाले जीवपरिणामको अथवा पूर्व शरीरके परित्यागपूर्वक उत्तर शरीरके ग्रहण करनेको भवग्रहणभव कहा जाता है । उनमें यहां भवग्रहणभव प्रकरण प्राप्त है
शंका- अमूर्त जीवका मूर्त शरीरके साथ कैसे बन्ध होता है ? .
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मूर्त आठ कर्मजनित अनादि शरीरसे संबद्ध जीव संसार अवस्था में सदा काल उससे अपृथक् रहता है । अतएव उसके सम्बन्धसे मूर्तभावको प्राप्त हुए जीवके शरीरके साथ सम्बन्ध होने में कोई विरोध नहीं है।
घा अ-काप्रत्योः 'सुमाहि' इति पाठः। 9 अ-कप्रत्योः - भववारणीव-'ताप्रती 'भा (धा) रणीय-' इति पाठः। * अ-काप्रत्योः 'भवसंवारणदाए',ताप्रतौ' भवसंवा (धा) रणदाए-' इति पाः। D मप्रतिपाठोऽयम् । अ-काप्रत्यो: 'अणाइणा अणाइणा', ताप्रतौ 'अगाइणा (अणाइणा)' इति पाठः ।
ताप्रती 'जीवस्स' इत्येतत्पदं नोपलभ्यते । प्रतिषु ' तस्स बंधेण' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.