Book Title: Shatkhandagama Pustak 16
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 218
________________ अप्पा बहुआणुयोगद्दारे उत्तरपयडिसंतकम्मं ( ५२३ तस्स चरिमसमयभवसिद्धयम्मि णत्थि संतं । मोहणीयसंतकम्मस्स सामित्तं जहा कसा पाहुडे कदंतहा कायव्वं । रिया असंतकम्मं कस्स ? णेरइयस्स वा मणुस - तिरिक्खस्स वा । मणुसतिरिक्खाउआणं संतकम्मं कस्स * ? अण्णदरस्स देवस्स णेरइयस्स तिरिक्खस्स मणुस्सस्स वा देवाउअसंतकम्मं कस्स ? देवस्स मणुसस्स तिरिवखस्स वा । णिरयगइ - तिरिक्खगइ - तप्पा ओग्गाणं च जादि- आणुपुव्विणामाणं आदावुज्जोवथावरसुहुम-साहारणसरीरणामाणं च संतकम्मस्स सामिओ को होदि ? अण्णदरो जाव निरय-तिरिक्खणामाणं चरिमसमयसंछोहओ त्ति । देवगइ - पाओग्गाणुपुव्वि- वेउब्वियसरीर आहारसरीर तप्पा ओग्ग अंगोवंग-बंधण-संघादाणं च संतकम्मं कस्स ? अण्णदरस्स अणुव्वेल्लिद संतकम्मियस्स जाव दुचरिमसमयभवसिद्धियो त्ति । मणुसगइ - मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वि-तप्पा ओग्गजादिणामाणं संतकम्मं कस्स ? अण्णदरस्स अणुव्वेल्लिदसंतकम्मियस्स जाव चरिमसमयभवसिद्धयोति । णवरि मणुसगइपाओग्गाणुपुव्विणामाए जादुचरिमसमयभवसिद्धियो ति । ओरालिय- तेजा - कम्मइयसरीराणं तप्पा ओग्ग सत्कर्म अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिकके नहीं रहता। मोहनीयके सत्कर्मके स्वामित्वका कथन जैसे कषायप्राभृत में किया गया है वैसे ही यहां भी करना चाहिये । नारकात्रुका सत्कर्म किससे होता है ? उसका सत्कर्म नारकी, मनुष्य और तिर्यंचके होता है | मनुष्यायु और तिर्यगायुका सत्कर्म किसके होता है ? उनका सत्कर्म अन्यतर देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्यके होता | देवायुका सत्कर्म किसके होता है ? उसका सत्कर्म देव, मनुष्य और तिर्यंचके होता है । नरकगति, तिर्यंचगति और तत्प्रायोग्य जाति एवं आनुपूर्वी नामकर्मोका तथा आतप उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणशरीर नामकर्मो के सत्कर्मका स्वामी कौन होता है ? उरु का स्वामी नरकगति और तिर्यंचगति नामकर्मोके अन्तिम समयवर्ती संक्रामक तक अन्यतर जीव होता है । देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वंक्रियिकशरीर व आहारकशरीर तथा उनके योग्य अंगोपांग, बन्धन और संघात नामकर्मोंका सत्कर्म किसके होता है ? उनका सत्कर्म सत्कर्मकी उद्वेलना न करनेवाले द्विचरम समयवर्ती भव्यसिद्धिक तक अन्यतर जीवके रहता है । मनुष्यगति मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और तत्प्रायोग्य जाति नामकर्मका सत्कर्म किसके होता है ? उनका सत्कर्म सत्कर्मकी उद्वेलना न करनेवाले अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिक तक अन्यतर जीवके रहता है । विशेष इतना है कि मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मका सत्कर्म द्विचरम समयवर्ती भव्यसिद्धिक तक रहता है । औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर तथा तत्त्रायोग्य * मणुयगइ जाइ-स-बायरं च पज्जत्त सुभम आएज्जं । जसकित्ती तित्थयरं वेयणि उच्चं च मणुयाणं ॥ भवचरिमस्तमयम्मि उ तम्मग्गिल्लसमयम्नि सेसाउ । आहारग - तित्थयरा भज्जा दुसु णत्थि तित्ययरं ।। क. प्र. ७, ८-९. ताप्रती ( णिरयगइ ) तिरिक्ख ( गइ ) - मणूस्साउआणं ' इति पाठः । * अ-काप्रयोः 'संतकम्मस्स' इति पाठः । बद्धाणि ताव आऊणि वेइयाइं ति जा कसिणं ।। क. प्र ७, ३. -अ-काप्रत्योः 'सिद्धया'' ' इति पाठः । प्रतिषु ' सामित्तओ' इति पाठः । Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348