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१४ लेस्साकम्माणुयोगद्दारं
कुंथुमहंत संथुवमणतणाणं. अणाइ-मज्झंतं ।
णमिऊण लेस्सयम्म अणुयोग वण्णइसामो ॥ १ ॥ (लेस्साओ) किण्णादियाओD, तासि कम्मं मारण-विदारण-चूरणादिकिरियाविसेसो, तं लेस्सायम्मं वत्तइस्सामो। तं जहा- किण्णलेस्साए परिणदजीवो णियो कलहसीलो रउद्दो अणुबद्धवेरो चोरो चप्पलओ पारदारियो* महु-मांस-सुरापसत्तो जिणसासणे अदिण्णकण्णो असंजमे मेरु व्व अविचलियसरूवो होदि । वुत्तं च
चंडो ण मुवइ वेरं भंडणसीलो य धम्मदयरहिओ।
दुट्ठो ण य एइ वसं किण्णाए संजुओ जीवो+।। १ ।। दावण्णादिसु पादवविवज्जियं णिविण्णाणं णिबुद्धि माण-मायबहुलं णिद्दालुअं सलोहं हिंसादिसु मज्झिमज्झवसायं कुणइ णीललेस्सा । वुत्तं च--
मंदो बुद्धीहीणो णिविण्णाणी य विसयलोलो य । माणी पायी य तहा आलस्सो चेव भेज्जो य ।। २ ।।
इन्द्रादिकोंसे संस्तुत, अनन्तज्ञानी, महान् और आदि मध्य व अन्तसे रहित ऐसे कुंथु जिनेन्द्रको नमस्कार करके लेश्याकर्म अनुयोगद्वारका कथन करते हैं ॥ १।।
लेश्यायें कृष्णादिक हैं; उनका कर्म जो मारण, विदारण और चोरी आदि क्रियाविशेष रूप है वह लेश्याकर्म कहलाता है; उस लेश्याकर्मका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-कृष्णलेश्यासे परिणत जीव निर्दय. झगडाल. रौद्र. वैरकी परम्परासे संयक्त, चोर, असत्यभाषी परदाराका अभिलाषी, मधु मांस व मद्यमें आसक्त, जिनशासनके श्रवणमें कानको न देनेवाला और असंयममें मेरके समान स्थिर स्वभाववाला होता है। कहा भी है--
कृष्णलेश्यासे संयुक्त जीव तीव्रक्रोधी, वैरको न छोड़नेवाला, गाली देने रूप स्वभावसे सहित, दयाधर्मसे रहित, दुष्ट और दूसरोंके वश में न आनेवाला होता है ॥ १ ॥
नीललेश्या जीवको दावण्ण आदिकोंमें पादवसे रहित (? ', विवेक रहित, बुद्धिविहीन, मान व मायाकी अधिकतासे सहित, निद्रालु, लोभसंयुक्त, और हिंसादि कर्मों में मध्यम अध्यवसायसे यक्त करती है। कहा भी है--
जीव नीललेश्याके वशमें होकर मन्द, बुद्धिविहीन, विवेकसे रहित, विषयलोलुप,
प्रतिषु 'संथुवमतगणाणं ' इति गठः। ताप्रतौ 'किण्णदियाओ' इति पाठः । । प्रतिष 'कम्माणं' इति पाठः। ॐ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिष 'चोरणादि', इति पाठ: * प्रतिषु 'पागरियो' इति पाठः । * गो. जी. ५०८. ४ अ-काप्रत्योः 'णिविण्णाग', ताप्रतौ 'णिविण्णाणी' इति पाठः। अ-काप्रत्यो: 'णिव्वुद्धि', ताप्रतौ णिब्बुद्धी' इति पाठः । मप्रतिपाठोऽयम् । अ-का-ताप्रतिषु 'चेव भुज्जो' इति पारः ।
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