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छक्खंडागमे संतकम्म
'अप्पसत्थाणं' एसा परूवणा अप्पसत्थपयडीणं कदा, ण पसत्थाणं; उसम-खवगसेडीसु वि बंधविरहियपसत्थपयडीणमधापवत्तसंकमदंसणादो। एदाओ पयडीओ एत्तिएहि भागहारेहि संकमंति त्ति जाणावणठें एसा गाहा
उगुदाल तीस सत्त य वीसं एगेग बार तियच उक्कं ।
___ एवं चदु दुग तिय तिय चदु पण दुग तिग दुगं च बोद्धव्यं ।। ३ ।। एदीए गाहाए वृत्तपयडीणं भागहाराणं च एसा संदिट्ठी-|३९ २०१३ ६२/६६।९।। एवं ठविय एदिस्से गाहाए अत्थो वुच्चदे। तं जहा- पंचणाणावरणचत्तारिदसणावरण-सादावेयणीय-लोहसंजलण-पंचिदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-पसत्थवण्ण-रस-गंध-फास-अगुरुअलहुअ-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइतस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-णिमिण-पंचतराइयाणं अधापवत्तसंकमो एक्को चेव । कुदो ? पंचणाणावरण-चउदंसणावरणपंचंतराइयाणं मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमयो त्ति बंधो चेव ।
यह प्ररूपणा 'अप्पसत्थाणं' अर्थात् अप्रशस्त प्रकृतियोंकी गयी है, न कि प्रशस्त प्रकृतियोंकी; क्योंकि, उपशम श्रेणि और क्षपक श्रेणि में भी बन्ध रहित प्रशस्त प्रकृतियोंका अधःप्रवृत्तसंक्रम देखा जाता है। ये प्रकृतियां इतने भागहारोंसे संक्रमणको प्राप्त होती हैं, यह बतलाने के लिये यह गाथा है--
उनतालीस, तीस, सात, बीस, एक, एक बारह और तीन चतुष्क ( ४, ४,४ ; इन प्रकृतियोंके क्रमसे एक, चार, दो, तीन, तीन, चार, पांच, दो, तीन और दो; ये भागहार जानने चाहिये ।। ३ ।।
इस गाथामें कही गयी प्रकृतियों और भागहारोंकी यह संदृष्टि है-- । प्रकृति ।३० । ३०।७। २० । १ । १ । १२ । । ४।४।। । इसे इस प्रकारसे स्थापित करके इस
भागहार । १ । ४।२। ३।३।४। ५ ।२।३। । गाथाका अर्थ कहते हैं । यथा- पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, संज्वलन, लोभ, पंचेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त वर्ण रस गन्ध व स्पर्श, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीति, निर्माण और पांच अन्तराय ; इन उनतालीस प्रकृतियोंका एक अधःप्रवृत्तसंक्रम ही होता है, क्योंकि, पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तरायका मिथ्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समय तक
उगदाल-तीस-सत्तय-वीसे एक्केकक-बार तिचउक्के । इगि-चदु दुग-तिग-तिग-चदु-पण-दुग दुग-तिण्णिसंकमणा । गो. क ४१८. 0 सुहुमस्स बंधघादी सादं संजलणलोह-पंचिदि । तेजदु-सम-वण्णचऊ-अगुरुगपरघाद-उस्सासं ।। सत्थगदी तसदसयं णिमिणुगदाले अधापवत्तो दु। गो. क. ४१९-२०.
४ ताप्रती ‘णाणावरण-पंचंतराइयाणं' इति पाठः। * अप्रतो '-इत्थि ' इति पाट: । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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