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छक्खंडागमे संतकम्मं
हाणीए संखे० गुणा । एवं णवदंसणावरणीय सादासादाणं । एवं सेसाणं पि कम्माणं । णवरि सम्मत्त सम्मा मिच्छत्त चत्तारिआउआणं च चत्तारिवड्ढि - चत्तारिहाणीयो वत्तवाओ । एवं ट्ठिदिसंकमो समत्तो ।
अनुभागसंकमे पुव्वं गमणिज्जो कम्माणमादिफद्दयणिद्देसो- चत्तारिणाणावरणीय - - तिष्णिदंसणावरणीय - - चदुसंजलण -- णवणोकसाय -- पंचंतराइयाणि देसघादोणि* । सादासाद--आउच उक्क-सयलणामपयडि- उच्च -- णीचागोदाणि अघादिकम्माणि । एदेसिमघादिकम्माणं पुव्विल्लदेसघादिकम्माणं च आदिफद्द - याणि सरिसाणि । केवलणाणावरणीय-छदंसणावरणीय - बारसकसाय० सव्वघा -
सव्वघादीणि
इकम्माणि । एदेसि आदिफद्दयाणि परोप्परं सरिसाणि । दारुसमाणाणि देसघादीणमादिफद्दए हितो अनंतगुणाणि । सम्मत्तस्स आदिफद्दयं देघादीणमादिफद्दएण सरिसं । तदो पहुडि सम्मत्तफद्दयाणि देसघादि
असंख्यात भागहानिके संक्रामक संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकारसे नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय और असातावेदनीयके सम्बन्ध में कथन करना चाहिये। इसी प्रकार शेष कर्मों के भी सम्बन्ध में कहना चाहिये । विशेष इतना है कि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और चार आयु कर्मोंकी प्ररूपणामें चार वृद्धियों और चार हानियोंको कहना चाहिये । इस प्रकार स्थितिसंक्रम समाप्त हुआ ।
अनुभाग संक्रमकी प्ररूपणा में पहिले कर्मोंके आदि स्पर्धकोंका निर्देश ज्ञात कराने योग्य है- चार ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, चार संज्वलन, नौ नोकषाय और पांच अन्तराय; ये देशघाती कर्म हैं । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार आयु, समस्त नामप्रकृतियां, उच्चगोत्र और नीचगोत्र; ये कर्मप्रकृतियां अघाती हैं । इन अघातिया कर्मोंके तथा पूर्वोक्त देशघाती कर्मों आदि स्पर्धक सदृश होते हैं । केवलज्ञानावरण, छह दर्शनावरण और बारह कषाय सर्वघाती कर्म हैं । इनके आदि स्पर्धक परस्परमें सदृश हैं । सर्वघाती कर्मोंके दारु समान स्पर्धक देशघाति कर्मोके आदि स्पर्धकों की अपेक्षा अनन्तगुणे हैं । सम्यक्त्व प्रकृतिका आदि स्पर्धक देशघातियोंके आदि स्पर्धक के सदृश है । उससे लेकर सम्यक्त्वके स्पर्धक देशघाति और
काप्रतौ ' गमणिज्जे ' ' ताप्रतौ ' गमणिज्ज' इति पाठ: ।
मति श्रुतावधि मन:पर्ययज्ञानावरण-चक्षुरचक्षुरवधिदशनावरण-संज्वलनचतुष्टय-नव नोकषायान्तराय पंचकलक्षणानां पंचविशति संख्यानां देशघाति प्रकृतीनां देशघातीनि रसस्पर्धकानि भवन्ति । स्वस्थ ज्ञानदेर्गुणस्य देशमेकदेशं मतिज्ञानादिलक्षण घातयन्तीत्येवंशीलानि देशघातीनि । क. प्र. ( मलय ) २- १. • वेदनीयायुर्नाम - गोत्राणां सम्बन्धिन एकादशोत्तरप्रकृतिशतस्याघातिनो रसस्पर्धकान्यघातीनि वेदितव्यानि । केवलं वेद्यमान सर्वघा 'तरसस्पर्धकसम्बन्धातान्यपि सर्वघातीनि भवन्ति । यथेह लोके स्वयमचौराणामपि चौरसम्बन्धाच्चौरता । उस च - जाण न विसओ घाइत्तणम्मि ताणं पि सव्वधाइरसो । जायइ घाइसगासेण चोरया वेहऽचोराणं ॥ क. प्र. ( मलय. ) २-४४. ३ केवलज्ञानावरण- केवलदर्शनावरणाद्यद्वादशकषाय-निद्रापंचक-मिथ्यात्वलक्षणानां विशनिप्रकृतीनां रसवर्धकानि सर्वघातीनि सर्वं स्वघात्यं केवलज्ञानादिलक्षणं गुणं घातयन्तीति सर्वघातीनि । तानि च ताम्रभाजनवत् निश्छिद्राणि, घृतवत् स्निग्धानि, द्राक्षाबत्तनु प्रदेशोपचितानि, स्फटिकाभ्रहारवच्चातीव निर्मलानि । उक्तं च- जो घायइ सविसयं सयलं सो होइ सव्वधाइरसो । सो निच्छिड्डो णिद्धो तणुओ फलिहहर विमलो ॥ क. प्र. ( मलय ) २-४४. * प्रतिषु ' घादि इति पाठः ।
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