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छक्खंडागमे संतकम्म
णाणाजीवेहि भंगविचओ। अटुपदं--जेसिं संतकम्ममत्थि तेसु पयदं । एदेण अटुपदेण पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-सम्मामिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसायतेरसणामपयडि-पंचंतराइयाणं च सिया सव्वे जीवा संकामया, सिया संकामया च असंकामओ च, सिया संकामया च असंकामया च । सादासाद-सम्मत्त-मिच्छत्त-सेसणामपयडि-उच्च-णीचागोदाणं संकामया च असंकामया च णियमा अस्थि । एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो । ___णाणाजीवेहि कालो-सव्वकम्माणं संकामया सव्वद्धा। अंतरं णत्थि णाणाजीवप्पणादो। अप्पाबहुअं। तं जहा--आहारसरीरणामाए संकामया थोवा । सम्मत्तस्स असंखे० गुणा। मिच्छत्तस्स असंखे० गुणा। सम्मामिच्छत्तस्स विसेसा० । देवगइणामाए असंखे० गुणा। णिरयगइ० विसेसा० । वेउव्विय० विसे० । णीचागोदस्स अणंतगुणा। असादस्स संखे० गुणा । सादस्स संखे० गुणा । उच्चागोदस्स विसे० । मणुसगइ० विसे० । अणंताणुबंधि० विसेसा० । जसकित्ति० विसे० । अट्टण्हं पि कसायाणं विसे। णिद्दाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धि-तेरसणामपयडीणं संकामया विसे०लोहसं० विमे०।
नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयका कथन करते हैं। उसमें अर्थपद--जिन कर्मोंका सत्कर्म है वे यहां प्रकृत हैं । इस अर्थपदके अनुसार पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तेरह नामप्रकृतियां और पांच अन्तराय; इन प्रकृतियोंके कदाचित् सब जीव संक्रामक होते हैं, कदाचित् बहुत संक्रामक व एक असंक्रामक, तथा कदाचित् बहुत संक्रामक व बहुत असंक्रामक भी होते हैं। साता असाता वेदनीय, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, शेष नामप्रकृतियां, उच्चगोत्र और नीचगोत्र; इनके नियमसे बहुत संक्रामक व बहुत असंक्रामक भी होते हैं। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ।
नाना जीवोंकी अपेक्षा कालकी प्ररूपणा की जाती है--सब कोंके संक्रामकोंका काल नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल है । सत्र कर्मोंके संक्रामकों का अन्तर नहीं होता, क्योंकि, नाना जीवोंकी विवक्षा है।
. अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की जाती है । वह इस प्रकार है--आहारशरीर नामकर्मके संक्रामक स्तोक हैं । सम्यक्त्वके संक्रामक असंख्यात गुणे हैं । मिथ्यात्वके संक्रामक असंख्यातगुणे हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामक विशेष अधिक हैं। देवगति नामकर्मके संक्रामक असंख्यातगणे हैं । नरकगतिके संक्रामक विशेष अधिक हैं । वक्रियिकशरीरके संक्रामक विशेष अधिक हैं। नीचगोत्रके संक्रामक अनन्तगुणे हैं । असातावेदनीयके संक्रामक संख्यातगुणे हैं। सातावेदनीयके संक्रामक संख्यातगुणे हैं । उच्चगोत्रके संक्रामक विशेष अधिक है। मनुष्यगतिके संक्रामक विशेष अधिक हैं। अनन्तानुबन्धोके संक्रामक विशष अधिक है। यशकीर्तिके संक्रामक विशेष अधिक है। आठों भी कषायोंके संक्रामक विशेष अधिक हैं। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगद्धि और तेरह नामप्रकृतियोंके संक्रामक विशेष अधिक हैं। संज्वलनलोभके संक्रामक विशेष अधिक हैं।
प्रतिष 'णाणाजीवप्पमाणादो' इति पाठः । Jain Education International
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