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संकमाणुयोगद्दारे ट्ठिदिसंकमो
( ३५१ आवलियाए असंखेज्जदिभागो च*। णिहाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धि-मिच्छत्तबारसकसाय-सम्मामिच्छत्त-इत्थि-णवंसयवेदाणं जहण्णट्ठिदिसंकमो पलिदो० असंखे० भागो। सादासादाणं जहण्णट्ठिदिसंकमो अंतोमुत्तं ।
सम्मत्त-लोहसंजलणाणं जहण्णट्टिदिसंकमो एगा टिदी। जट्टिदिसंकमो समयाहियावलिया। छण्णं णोकसायाणं जहण्णट्ठिदिसंकमो संखे० वस्साणि । कोहसंजलणाए जह० टिदिसंकमो बे मासा अंतोमुहत्तूणा* जट्ठिदिसंकमो बे मासा बेहि आवलियाहि ऊणा। माणसंजलणस्स जहण्णटिदिसंकमो मासो अंतोमुहुत्तूणो, जट्ठिदिसंकमो मासो बेहि आवलियाहि ऊणो। मायासंजलणाए जहण्णटिदिसंकमो अद्धमासो अंतोमुहुत्तूणो, जट्ठिदिसंकमो अद्धमासो दोहि आवलियाहि ऊणो। पुरिसवेदस्स जहण्णढिदिसंकमो अदुवस्साणि अंतोमुत्तूणाणि., जट्ठिदिसंकमो अटुवस्साणि दोहि आवलियाहि ऊणाणि । __ आउआणं जहा जहण्ण टिदिउदीरणाए तहा कायव्वं । णिरयगइ-णिरयगइपाओगाणुपुवी-तिरिक्खगइ--तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी-एइंदिय-बेइंदिय तेइंदिय-चरिदियजादि-आदावुज्जोव-थावर-सुहुम-साहारणसरीराणं जहण्णगो ट्ठिदिसंकमो पलिदो०
जस्थितिसंक्रम दो आवली और एक आवलीके असंख्यातवें भागसे अधिक है। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व, बारह कषाय, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिसंक्रम पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। साता और असाता वेदनीयका जघन्य स्थितिसंक्रम
सम्यक्त्व और संज्वलन लोभका जघन्य स्थितिसंक्रम एक स्थिति मात्र है। इनका जस्थितिसंक्रम एक समय अधिक आवली मात्र है। छह नोकषायोंका जघन्य स्थितिसंक्रम संख्यात वर्ष मात्र है। संज्वलन क्रोधका जघन्य स्थितिसंक्रम अन्तर्मुहुर्त कम दो मास और जस्थितिसंक्रम दो आवलीसे कम दो मास प्रमाण है। संज्वलन मानका जघन्य स्थितिसंक्रम अन्तर्मुहुर्त कम एक मास और जस्थितिसंक्रम दो आवली कम एक मास प्रमाण है। संज्वलन मायाका जघन्य स्थितिसंक्रम अन्तर्मुहुर्त कम आधा मास और जस्थितिसंक्रम दो आवली कम आधा मास प्रमाण है। पुरुषवेदका जघन्य स्थितिसंक्रम अन्तर्मुहुर्त कम आठ वर्ष और जस्थितिसंक्रम दो आवली कम आठ वर्ष है।
आयु कर्मोकी जिस प्रकार जघन्य स्थितिकी उदीरणा कही गयी है उसी प्रकारसे उनके जघन्य संक्रमको भी कहना चाहिये । नरकगति, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, आतप, उद्योत. स्थावर, सूक्ष्म,
* निदादुगस्स एक्का आवलिदुर्ग असंखभागो य । जट्रिxxx क. प्र. २, ३३ मिच्छत्तसम्मामिच्छत्त-बारसकसाय-इत्थि-णवंसयवेदाणं जहण दिदिसंकमो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। कपा. सु ३१९, ४४. क. पा. सु. पृ. ३१९, ४५. . क पा सु. पृ. ३१९, ४९. * का-मप्रत्यो 'अंतोमहत्तणो', अप्रतौ त्रुटितोऽत्र पाठः । क पा सु. पृ. ३१९, ४५. 0 क पा सु पृ. ३१९, ४६.
* क पा सु. पृ. ३१९, ४७. . का पा सु पृ. ३१९, ४८. ताप्रतो 'आउआणं जहण्ण-' इति पाठः। Jain Education internationals "Fospritted Personal use only"
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