________________
मना कर उनका नाम वर्धमान रखा। 30 वर्ष की आयु में लौकांतिक देवों ने आकर वर्धमान स्वामी की भूरि-भूरि प्रशंसा की। तब वर्धमान पालकी में सवार होकर दीक्षा वन चले गये व केशलौंच कर निग्रंथ दशा को प्राप्त कर वे चार ज्ञान के धारी बन गये। बारह वर्ष तक उन्होंने तप किया। तत्पश्चात जृम्भिका ग्राम में ऋजुकूला नदी के किनारे एक शिला पर ध्यानस्थ होकर चार घातिया कर्मों का नाश कर वैसाख सुदी दशमी के दिन वे केवलज्ञानी बन गये। बाद में वे मगध देश के राजगृही नगर स्थित विपुलाचल पर्वत पर पधारे, जहां इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने समवशरण की रचना की। इसके मध्य में विराजमान होकर केवली भगवान महावीर स्वामी ने मुनि व श्रावक धर्म का उपदेश दिया। उन्होंने कहामुनियों के ममता भाव नहीं होता। वे निर्ग्रन्थ व निष्परिग्रही होते हैं। उन्होंने श्रावक धर्म के 4 भेद बतलाये1. शील- ब्रह्मचर्य ही शील है। आत्मा का यही सत्य
स्वभाव है। इसके पालने से अन्यान्य व्रतों की रक्षा
होती है व अन्यान्य गुण स्वतः प्राप्त होते हैं। 2. तप- पांचों इंद्रियों को वश में करना तप कहलाता
है। यह तप बाह्य व अभ्यंतर के भेद से छह-छह
प्रकार का होता है। 3. दान- दान चार प्रकार का होता है। दान उत्तम,
मध्यम, व जघन्य पात्रों को मन, वचन, काय की
शुद्धता पूर्वक दिया जाता है। 4. भावना- जैनधर्म के सिद्धांतों का अध्ययन व मनन
करने को भावना कहते हैं। इससे आत्म बल की
वृद्धि होती है। विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर स्वामी का पुनः समवशरण आने पर राजगृही नरेश महाराजा श्रेणिक ने भगवान की वंदना व स्तुति करने के उपरांत ऋद्धिधारी गणधर गौतम स्वामी से पूछा-हे दयानिधे, मैं कुरूवंश के दीपक पांडवों के चरित्र को सुनने व जानने की इच्छा रखता हूँ। तब भगवान की दिव्य देशना खिरनी प्रारंभ हुई। तभी उस वाणी
14 - संक्षिप्त जैन महाभारत