Book Title: Sanghpattak
Author(s): Harshraj Upadhyay
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 13
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org " ५ इन प्रन्थो में सार्द्धशतक, षडशीति और 'पिण्डविशुद्धि ये तीनों ही सैदान्तिक अन्य बहुत ही महत्व के थे। इन ग्रन्थों पर आचार्य मलयगिरि, धनेश्वराचार्य, हरिभद्राचार्य श्रीचन्द्राचार्य आदिने तत्काल ही अर्थात् १२वीं शती में ही टीकाएं रचकर इनकी सार्वजनिक उपयोगिता द्योतित की, और इनके प्रायः समग्र प्रन्थों पर अनेकों टीकाएं प्राप्त होती हैं । ६ 6 1 १. इनके समग्र मूल ग्रन्थों का वहमभारती' के नाम से मैं सम्पादन कर रहा हूँ उसमें 'गणिजी ' के काव्य वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालूंगा । अतः यहां पर उनकी विशदप्राज्ञता पर विचार नहीं कर रहा हूँ । २. क्या पिण्डविशुद्धि के कर्त्ता पृथक् #? वर्तमान युग में कई मुनिगण पिण्डविशुद्धि के कर्त्ता खरतर जिनवल्लभ नहीं है किन्तु इसी नाम के कोई पृथक आचार्य की यह रचना है ऐसा मानते है। उनमें अग्रगण्य माग पंन्यास मुनि मानविजयजी भजते है । वे अपनी 'पिण्डविशुद्धि की प्रस्तावना में गच्छव्यामोह से अनेक बातें इतिहासविरुद्ध, प्रमाणाभाव सह, स्वकपोलकल्पनोद्भावित अनेक प्रकारकी शंकाएं उपस्थित कर ऐसा प्रतिपादित करते हैं कि-श्री जिनेश्वरसूरि श्री अभयदेवसूरि सुविहितपक्षीय ( खरतरगच्छीय) नहीं थे, उनका यह प्रतिपादन कहाँ तक सुधियुक्त है इसका विचार मैं अपनी बहमभारती की प्रस्तावना में विशद्रूप से करूंगा। किन्तु जिनवाह के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा है उसका सारांश प्रस्तावना पृष्ठ २-३-४ में निम्नलिखित है"१. जिनवल्लभसूरि खरतर है इस प्रकार का प्रलाप स्वगच्छ का उत्कर्ष बढाने के लिये किया गया 1 २. पटू कल्याणक की उत्सूत्रप्ररूपणा करने के कारण खरतर जिनवलम को संघबहिष्कृत किया गया था अतः अभयदेवाचार्य के शिष्य भी नहीं हो सकते । " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३. तत्कालीन रचित टीकाओं में किसी भी टीकाकार आचार्यने यह निर्देश नहीं किया कि वे खरतरगच्छीय थे और अभयदेवाचार्य के शिष्य थे । ४. ऐसे सङ्घ • बहिष्कृत उत्सूत्र प्ररूपक के प्रन्थ पर श्रीचन्द्रसूरि जैसे समर्थ टीकाकार टीका नहीं रच सकते । अतः यह सुस्पष्ट है कि पिण्डविशुद्धिकार खरतर नहीं है, किन्तु पृथक् एतनामधारक कोई आचार्य है। इस मान्यता पर विचार करें तो केवल यही प्रतीत होता है कि प्रस्तावना लेखक ऐतिहासिक परंपराओं से अनभिज्ञ हैं। प्रमाणों में केवल सेनप्रश्न का प्रमाण दिया है। इस प्रमाण से भी किसी जगह पिण्ड विशुद्धिकार पृथक् हैं, इस विषय में कोई प्रकाश नहीं पड़ता । दूसरी बात - जिनवल्लभसूरि १२वीं शताब्दि में हुए हैं, और सेनप्रश्नकार १७वीं शताब्दि में तथा सेनप्रश्न की रचना भी उपाध्याय धर्मसागर जी के उन्मार्गप्ररूपणा के पश्चात् ही हुई है, अतः धर्मसागरीय ग्रन्थों का प्रभाव इस पर पूर्णरूप से पडा है । अतः ऐसी अवस्था में ग्रन्थकार के जीवन और प्रन्थों पर विचार करने के लिये सेनप्रश्न का उपयोग कथंचित् भी नहीं किया जा सकता । परन्तु तत्कालीन प्राप्त प्रमाणों के आधार पर ही निर्णय करना चाहिये कि क्या जिनवल्लभ उत्सूत्रप्ररूपक थे ? संघबहिष्कृत थें ? और अभयदेवाचार्य के शिष्य नहीं थे? 'गणिजी की पदकस्याणक प्ररूपणा उत्सूत्रप्ररूपणा नहीं थी, किन्तु सैद्धान्तिक प्ररूपणा दी थी। यदि उत्सूत्रप्ररूपणा होती तो तत्कालीन समय गच्छों के आचार्य इतका उम्र विरोध करते; और दुर्दम १. श्रीचन्द्रसूरि टीका सह विजयदानसुरि प्रन्यमाला सूरत सं. १९९५ में प्रकाशित । For Private And Personal Use Only

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