Book Title: Sanghpattak
Author(s): Harshraj Upadhyay
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 125
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'देवार्थ० ' इति-देवोदेश्यक धन-देवद्रव्य-से अपनी रुचि के अनुकूल, एवं सभी ऋतुओं में सुखप्रद एसे मठ बनवाकर उस मठ में सर्वदा रहनेवाले ये हीना. चारी लोग खूब स्वच्छ कोमल रुई से भरे हुए सुन्दर बिछौने पर सोते हैं। इसी प्रकार के गद्दी आदि आसनों एवं मसूरियों-तकियेदार आसनों पर बैठते हैं । ये सर्वदा आरम्भ, परिग्रह और श्रोत्रादि पांचों इन्द्रियों के विषयों से युक्त, तथा ईर्ष्या और द्रव्यादि की आकाङ्क्षा से सर्वदा आन्दोलित हृदयवाले होकर रहा करते हैं । ऐसे श्वेत वस्त्रधारी, साधु के वेष में छिपे हुए लम्पट ये हीनाचारी लोग महावतों को भी लाञ्छित कर दिये हैं। इनके द्वारा माधुमार्ग कलङ्कित हो चुका है ।। २४ ॥ 'इत्या०' इति-परतीर्थिक लोग इन हीनाचारियों की सामाचारी को देखकर 'ये लोग साधुवेषमें छिपे हुए लम्पट हैं ' इस प्रकार सभी जैनमुनियों के विषय में बे उपहास करते हैं। और इन हीनाचारियों की लीला सुनकर श्रुतमार्ग के अभिमुख हुए लोग भी इस से विमुख हो जाते हैं। इन हीनाचारियों की मिथ्याप्ररूपणा के कारण सम्यग्दृष्टि लोग भी सन्देहयुक्त होने लगते हैं । इस लिये यह निश्चित हुआ कि-ये हीनाचारी चैत्यवासी लोग जिनप्ररूपित सिद्धान्त से सर्वथा विरुद्ध आचरण करनेवाले हैं ।। २५ ॥ 'सर्वैः' इति-चैत्यवासियों द्वारा विहित कुमार्ग को सेवन करनेवाले, इसी कुमार्ग को जिनमार्ग कहनेवाले, तथा अपनी दुरात्मता से जिनमार्ग का उच्छेदन करनेवाले लोगों के मन को, संसार के समस्त सद्योघाती अत्युत्कट कालकूट विषों के समूहने, संसार के समस्त पापोंने, सभी विषैले सोने और समस्त कष्ट, आधि-मानसिकव्यथा, व्याधि-रोग तथा दुष्ट ग्रहोने निश्चय ही क्रूर बना डाला है ।। २६ ।। इस कारण से यहां कारण कहते हैं 'दुर्भेद.' इति-इन हीनाचारी चैत्यवासियों के बुद्धिरूपी नेत्र जो कभी भी नहीं दूर होसकते ऐसे कदाग्रहरूपी अत्यन्त गाढ अन्धकार-पुञ्ज से आच्छादित हैं। ये चैत्यवासी लोग सिद्धान्त के श हैं । निरन्तर महामोहनीय कर्म के उपार्जन करते रहने के कारण ये महाअभिमानी हैं । ये स्वयं तो नष्ट हो ही चूके हैं और दूसरों को भी विनाश करने में सर्वदा उद्यत हैं । ऐसे जो ये मिथ्याचारवाले चैत्यवासी लोग हैं इन के वचन पर कोई विद्वान् मनुष्य कैसे ध्यान देगा ? अर्थात् इन के वचनों को कैसे मानेगा ? विद्वान् मनुष्य ऐसे लोगों के वचन को सुन ही नहीं सकते इस लिये हे शिष्य ! तुम भी इन के वचनों को कभी नहीं सुनना ।। २७ ।। क्यों कि For Private And Personal Use Only

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