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रखनेवाले हैं एसे मुनि लोग तो आज भी इस जगतमें सत्साधु कहलायेंगे ही अर्थात् एसे मुनि को विवेकी जन सत्साधु कहेंगे ही। प्रसङ्ग से यहां बकुश आदिकी व्याख्या की जाती है
पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ होते हैं-बकुश १, कुशील २, पुलाक ३, निर्गन्थ ४, और स्नातक ५ । इनमें बकुश दो प्रकार के होते हैं (१) उपकरणबकुश और (२) देहबकुश । उपकरणवश वे कहलाते है जो वर्ष में विना आवश्यकता के भी कभी कभी वस्त्रादिको धोते हैं, श्लक्ष्णचिकने रेशमी वस्त्रों को ग्रहण करने की इच्छा रखते हैं एवं कभी पहिनते भी हैं, पात्र दण्डा आदि को घी तैल माक्खन आदिसे चमकदार बनाते हैं, अधिक उपकरणो की भी याचना करते हैं (१)। देहबकुश वे होते हैं जो विना कारण ही हाथ पैर नख आदि को विभूषित-सुशोभित करते रहते हैं (२), दोनों प्रकारके ये बकुश शिष्यादि परिवार आदि विभूतिको तथा तप और पाण्डित्य आदिसे उत्पन्न हुए यशको चाहते हैं और आनन्द मनाते हैं, तथा छेदयोग्य बहुत अतिचारों से शवलित - कर्बुरित अर्थात् मलिन होते हुए भी कर्म क्षयके लिए उद्यत रहते हैं, इत्यादि लक्षणवाले होते हैं ॥ १॥
कुशील भी दो प्रकार के होते हैं-आसेवनाकुशील और कषाय कुशील । जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप का किश्चिन्मात्र आराधन करते है वे आसेवनाकुशील है। और जो क्रोधादिक भावों के वश होकर ज्ञानादि गुगों की विराधना करते हैं और मूलोत्तर गुणों के विषायक होते हैं वे कषायकुशील हैं ॥ २॥ इन पांचो का विस्तृत स्वरूप श्रीभगवतीसूत्र आदि से जान लेवें ।
यहां शङ्का होती है कि जब ये शिथिल क्रियावाले हैं, केशों का लोचन करके कैंची से केश काटते हैं, सुन्दर-सुन्दर उपकरण रखते हैं और मूल गुण उत्तर गुण के विराधक हैं तो फिर ये 'निग्रन्थ' शब्दसे कैसे कहे जाते हैं ? इनका स्वरूप किस प्रका. रसे है ?, इसका समाधान यह है कि-इनकी पूर्वोक्त क्रियाएँ प्रवाह रूपसे ( हमेशांसर्वदा) नहीं हैं-कभी कभी विशेष कारण को लेकर धावनादि क्रिया करते है, और मूलोत्तर गुणों की विराधना मानसिक विराधनाको लेकर है अर्थात् मनसे कभी विराधना कर बैठते हैं, यह यहां सारांश है, किन्तु इनके सदा इन क्रियाओं की कर्तव्यता नहीं है, इस लिये इनको 'निग्रन्थ' शब्दसे कहा है ।। ३६ ॥
अब सत्साधुओं का वर्णन करते हैं
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