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व्याघ्रके क्रम (फन्दे) में पडे हुए भव्यप्राणीरूप हरिणोंका छुटकारा कहां ? अर्थात् उनका मुक्तिगमन के से हो सकता है ? ॥ ३३ ॥
___ 'इत्थं ' इति-इस पूर्वोक्त प्रकारसे जो मैने मिथ्या पथ के विषयमें बिलकुल सत्य बात कही है, इसे कोई ऐसा न समझे कि-' इन्हों ने परदोषोद्धारनरूप अनुचित कार्य किया है। ' अथवा-'इन रागद्वेषात्मक वाक्य से क्या लाभ ?' इस प्रकार मेरे ऊपर कोई सजन क्रोध भी न करें ! क्योंकि मैने-इन हीनाचारी चैत्यवासियों द्वारा प्रकल्पित जैनमार्ग के भ्रमसे कुमार्गमें पड़े हुए लोगों को देखकर उनकी भ्रान्ति को दूर करने के लिये हे अर्थात् इन विचारों का क्या होगा ?' इस उद्देश्य से ही करुण भावसे आक्रान्त हो यह सब कहा है, और इसकी ग्रन्यरूपमें रचना भी की है। इसमें राग, द्वेष अथवा पैशुन्य कारण नहीं है ॥ ३४ ॥
इसमें कारण कहते हैं___ 'प्रोद्भूते.' इति-जो कोई सजन करुणा के वश हो लोगों में कहते हुए कुबोध को दूर हटाने की इच्छा से हीनाचारी इन चैत्यवासियों द्वारा प्ररूपित दुष्ट मार्ग केजो यह मार्ग अनन्त काल से उद्धृत हुआ है अर्थात् जो पहले अनन्त कालमें कभी नहीं था, तथा यह पाप का स्थान है, नाममात्र के वेषसे जो जिनमार्गकी भ्रान्ति को उत्पन्न करता है, वस्तुतः यह जिनमार्ग का घातक है, एमा जो यह दृष्ट मार्ग है उसके-दोषों की संख्याको कोई कहना कहे तो मानो वह समुद्र के जलको मापना चाहता है, अथवा पग से समस्त आकाश को लोंघना चाहता है, अर्थात् जैसे समुद्र के जल का मापना, पग से आकाशको लाँघना कठिन है इसी प्रकार इस मार्ग के दोषों का कहना भी कठिन है अर्थात् इस मार्गमें इतने असंख्य दोष हैं कि जिनकी इयत्ता ( इतने दोष हैं ए सी संख्या ) हो नहीं सकती ॥ ३५ ॥
अब सत्साधुओं का वर्णन करते हैं
'न सावद्या.' इति-जो सावद्य आम्नायवाले नहीं हैं, अर्थात् आधार्मिक आहारादि का ग्रहण करना जिनकी परम्परामें नहीं हैं, अर्थात् जो चैत्यवासी नहीं हैं, तथा जो बकुश और कुशीलों की क्रियासे रहित हैं अर्थात् बकुश और कुशीलों की क्रिया का आचरण नहीं करनेवाले हैं । मद ममता और आजीविका के भयसे जो रहित हैं। संक्लेश अर्थात् रौद्र अध्यवसाय जिन्हें नहीं होता है, जो कदाग्रही अर्थात हठी नहीं हैं। कपटी अर्थात् मायावी भी नहीं हैं। तथा जो सूत्रो-सिद्धान्तों में रुचि
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