Book Title: Sanghpattak
Author(s): Harshraj Upadhyay
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 11
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २. श्रीअभयदेवाचार्य के पास सिद्धान्तों के अध्ययन के लिये वे गये थे, और पीछे से आचार्यश्री के पास ही उपसम्पदा प्रहण की थी, अर्थात् अभयदेव के ही शिष्य बने थे। ३. श्रीदेवभद्राचार्यने ही इन को अभयदेवाचार्य के पट्ट पर स्थापित किया था। अन्तरण प्रमाणों में खरचित (जिनवल्लभरचित ) 'प्रश्नोत्तरेकषष्ठिशतक काव्य' जो उपसम्पदा से पूर्व ही रचा गया था उसमें वे श्रीजिनेश्वराचार्य को 'मद्गुरवो जिनेश्वरसूरयः' सम्बोधन से और आचार्य श्रीअमयदेव को 'सद्गुरवोऽत्र चारुचरण श्रीसुश्रुताः विश्रुताः श्रीमदभयदेवाचार्याः' सम्बोधन से व्यक्त करते हैं। इस से यह तो निश्चित हो ही जाता है कि जिनेश्वराचार्य इनके मूल दीक्षागुरु थे, और सैद्धान्तिक ( विद्यागुरु ) गुरु थे आचार्य अभयदेव ।। (२) इन्हीं श्रीजिनवल्लभगणिरचित सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार प्रकरण (सार्द्धशतक) पर बृहद्गच्छीय श्रीधनेश्वराचायेने सं. ११७१ में टीका की रचना की है। उसमें १५२ वें पद्य की व्याख्या करते वे लिखते हैं कि___ “जिणवल्लहगणित्ति" जिनवल्लभगणिनामकेन मतिमता सकलार्थसमाहिस्थानाङ्गागोपागपञ्चाशकादिशास्त्र वृत्तिविधानावाप्तावदातकीर्तिसुधाधवलितधरामण्डलानां श्रीमदभयदेवसूरीणां शिष्येण लिखितं कर्मप्रकृत्यादिगम्भीरशास्त्रेभ्यः समुदत्य दृब्धं जिनवल्लभगणिलिखितम् ।" ___इन प्रमाणों से यह स्पष्ट प्रतीत है कि 'जिनवल्लभगणि नवाजीवृत्तिकारक आचार्य अभयदेवसूरि के शिष्य थे। तदुपरान्त सुविहितपक्षीय जिनेश्वराचार्य के पट्टधर आचार्यप्रवर श्रीजिन चन्द्रसूरि रचित संवेग. रंगशाला को पुष्पिका " इति श्रीमजिनचन्द्रसूरिकृता तहिनेय श्रीप्रसन्नचन्द्रसूरि समभ्यर्थितेन गुणवन्दगणि [ना] प्रतिसंस्कृता, जिगवल्लभगणिना च संवेगरजशालाऽऽराधना समाप्ता।" से यह नूतनवस्तु प्रकाश में आती है कि-गुणचन्द्र गणि जो आचार्य बनने पर देवभद्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए; उनने संवेगरंगशालाजिसकी रचना ११२५ में हुई थी-उसका संस्कार किया और श्रीजिनवल्लभ गणिने उसका संशोधन किया। इस से भी यही सिद्ध होता है कि, वि. सं. ११२५ के पूर्व ही श्रीजिनवल्लभने अभयदेवाचार्य के पास उपसम्पदा प्रहण करली थी। __ श्रीजिनवल्लभ उपसम्पदा पूर्व 'गणि' नहीं थे, यह बात के-उपसम्पदा पूर्व रचित उनके जो दो अन्य प्राप्त होते है। उनकी निम्ननिर्दिष्ट पड़ियों से प्रतीत होता है-प्रथम कृति पार्श्वनाथस्तोत्र पद्य ३३ [आदिः-नमस्यद्गीर्वाणाधिपतिनृपतिस्तोमविनयत्'] में मया प्रथमकाभ्यासात्' कह कर अपना नाम केवल १. "क: स्यादम्भसि वारिवायसवति? कद्वीपिनं हन्त्ययं, लोकः(क) प्राह हयः प्रयोगनिपुणैः कः शब्दधातुः स्मृतः ।। ब्रूते पालयिताऽत्र ! दुर्धरतरः क्व क्षुभ्यतोऽम्भोनिधेः ।, ब्रूहि श्रीजिनवल्लभस्तुतिपदं कीदग्विधाः के सताम् ?"॥१५९॥ “मद्गुरवो जिनेश्वरसूरयः" १.'पाक धातुरवाधिकः ? क भवतो भीरोः मनः प्रीतये?. सालङ्कारविदग्धया वद कया रज्यन्ति विद्वजनाः ।। पाणी किं मुरजिद्विभक्ति भुवि तं ध्यायन्ति वा के सदा?, के वा सदरवोऽत्र चारुचरणश्रीसुश्रुताः विश्रुताः ? १५८।' "श्रीमदभयदेवाचार्याः " १. भज्ञानाद्भणिति स्थितेः प्रथमकाभ्यासात् कवित्वस्य यत् । किश्चित्सम्भ्रमहर्षबिस्मयवशाचायुक्तमुक्के मया ॥३३॥ For Private And Personal Use Only

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