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कदम भी उठाते ! पर आचर्य है कि इस प्ररूपणा का किसी भी आचार्यने इसका विरोध किया हो ऐसा प्रमाण प्राप्त नहीं होता है। प्रत्युत प्रतिपादन के प्रमाण अनेकों उपलब्ध होते है। अतः यह सिद्ध है कियह प्ररूपणा तत्कालीन समग्र आचार्यों को मान्य सी ही थी ।
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परन्तु इसका सर्वप्रथम विरोध, १७वीं शती में खरतरों के उपजीव्य न हों इस दृष्टिबिन्दु को ' रखकर अभयदेवाचार्य को पृथक् करने के निमित्त उद्भट विद्वान् उपाध्याय धर्मसागरजीने किया । तत्पश्चात् यह वाद गच्छ्वाद के रूप में स्वीकृत हो गया और परम्परा से चलता रहा, जो आज भी विद्यमान है ।
उ० धर्मसागर को इस उन्मार्ग प्ररूपणा के कारण तत्कालीन तपगच्छ सम्राट् पू. श्रीविजयदानसूरिने ७ बोल निकालकर इनके एतद्विषयक प्रन्थों को जलशरण किया और उ० जी को गच्छबहिष्कृत' भी इसी प्रकार सूरिसम्राट् श्रीहीरविजयसूरिजी म०ने भी इनके प्रति ११ बोलों का आदेशपत्र निकाला था । अतः ऐसे व्यक्ति का विरोध शास्त्रसम्मत नहीं माना जा सकता ।
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और जिनवल्लभ गणिने अपने स्तोत्रों में सामान्यापेक्षया पंचकल्याणक लिखे हैं तो भी विशेषापेक्षया पटुकल्याणक की प्ररूपणा में किशिद भी बाधा उपस्थित नहीं होती ।
वस्तुतः षट्कल्याणक प्ररूपणा शास्त्रोचित है या नहीं ? इसका विचार मेरे दिवंगत पूज्येश्वर गुरुदेव श्रीजिनमणिसागरसूरिजी मन्ने षट्कल्याणकनिर्णय में विशदरूप से किया है, उसको देखकर ही निर्णय करना चाहिए ।
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अतः जब जिनगाह
उत्सूत्रप्ररूपक ही नहीं है तो फिर संघ बहिष्कृत की मन्यता तो कपोककल्पित ठहरती ही है । यदि प्रस्तावना लेखक के पास संघबहिष्कृत का कोई भी प्रमाण हो तो उपस्थित करें । उस पर अवश्यमेव विचार किया जायगा ।
पूर्वोद्धृत सार्द्धशतक की टीकानुसार नवाङ्गवृत्तिकारक श्री अभयदेवसूरि के शिष्य जिनवल्लभ हैं ही ।
यदि विचार करे कि पिण्डविशुद्धिकार पृथकू है ? तो फिर वे कौन थे और किस गच्छ के थे ? इनके एतद्विषयक कोई प्रमाण नहीं मिलता है। तत्कालीन ३-४ शताद्वियों में खरतर जिनवलभमणि से पृथक कोई आचार्य की उपलब्धि ही जैन साहित्य में नहीं होती है और इनके सम्बन्ध में खरतरगच्छीय गुरुपरम्पराओं के अतिरिक्त उल्लेख भी नहीं मिलता। अतः यह सिद्ध है कि पिण्डविशुद्धिकार जिवलगणि पृथक् नहीं है, किन्तु अभयदेवाचार्य के शिष्य खरतरगच्छीय ही है और इनके सिद्धान्त सर्वमान्य भी हैं।
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सपट्टक - प्रस्तुत काव्य की रचना ' गणिजी के जीवन की चरमोत्कर्ष कहानी है उपसम्पदा के पश्चात् पबाद चैलवास का सक्रिय विरोध कर आमूलोच्छेदन करने का प्रयत्न किया और इस प्रयत्न में इनको पूर्ण सफलता भी प्राप्त हुई। इनके पश्चात् युगप्रधान श्रीजिनदत्तसूरि और आचार्यप्रवर श्रीजिनपतिसूरिने तो अपने सबल प्रयत्नों से इस परंपरा का उच्छेदन ही कर डाला था । गणिजीने इस लघु काव्य में तत्कालीन चैत्यवासी आचार्यों की शिथिलता, उनकी उन्मार्गप्रहरणा और सुविहितपथ-प्रकाशक गुणिजनों के प्रति द्वेष इत्यादि का सुन्दर विश्लेषण किया है।
इस काव्य में ४० पथ हैं । उनमें प्रथम श्लोक में श्रीपार्श्वनाथ को नमस्कार कर 'पण्डितों को कुपथ
१. देखें श्री अगरबन्द भंवरलाल नाइटा द्वारा लिखित युगप्रधान जिन चन्द्रसूरि । २. ऐतिहासिक राससंग्रह. ( विजयतिलकसूरि-रास) भाग ४ ।
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