Book Title: Sanghpattak
Author(s): Harshraj Upadhyay
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 118
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री संघपट्टक का हिन्दी भाषानुवाद । ---- -- 'वहिज्वाला०'-कुपथ-कुधर्म के खण्डन करने में तत्पर, करुणारूपी अमृत के सागर पार्श्वप्रभुने अपनी माता तथा अन्य बहुत से लोगों के सामने कमठमुनि ( तापस ) की धूनी में जलती हुई लकडी के छिद्र में धूनी की ज्वाला से ज्वलितप्राय नाग को दिखलाकर कमठमुनि के तप को दुष्टतप उद्घोषित किया और प्रभुने तनिमित्त अनेक उपसर्गों का भी सहन किया । कमठमुनि के तपको दुष्ट तप उद्घोषित करते हुए भगवानने मानो लोगों से कहा कि "प्राज्ञों को उचित है कि-वे कष्ट उठाकर भी लोगों को कुमार्ग पर जाने से रोकें" दुष्प्रवृत्ति से लोगों को, परावर्तन करने-हटाने में तत्पर ऐसे पाश्वनाथनामक जिनदेव की हम स्तुति करते हैं ॥ १ ॥ __ 'कल्याणाभि.' हे शिष्य ! तुम्हारा मानसिक परिणाम शुभ है, तुम गुणग्राही हो, कुमार्ग के प्रत्यर्थी-शत्रु हो, विनयशील हो, सरल हो, यथोचित कार्य करने में सर्वदा प्रवृत्त रहते हो, उदार, जितेन्द्रिय, नीतिमान् , स्थिरता एवं धीरता से युक्त, सद्धर्म के अभिलाषी, विवेक एवं सद्बुद्धि से युक्त हो इसीलिये हम तुमको उपदेश देते हैं अर्थात् सङ्घ व्यवस्था का प्रतिपादन करते हैं ॥२॥ 'इह किल.' इति-इस दुष्षमा काल में प्राणिवर्ग कलिकालरूपी महासर्प के दाढ में पड़े हुए हैं, प्राणियों में तत्व के प्रति प्रीति तथा नीतिमत्ता का बिलकुल अभाव हो गया है, अज्ञान एवं कुपथ की अहर्निश वृद्धि के कारण प्राणियों का सुगतिमार्ग अर्थात् देवगति आदिसे सम्बन्ध एकदम विच्छिन्न हो गया है। एसे समय इस जगत में भस्मग्रह और उसका मित्र असंयतियों की पूजारूप दशम आश्चर्य खूब उन्नति पा रहे हैं, मिथ्यात्वरूप अन्धकार दिन दोगुना रात चौगुना बढ़ रहा है। इस मिथ्यात्व के कारण जैनेन्द्र मार्ग विरलता अर्थात् क्षीणता को प्राप्त हो चूका है । एसे अवसर में रौद्र अध्यवसायवाले द्वेषी, मूर्ख, दुर्जन तथा दुर्बुद्धियों के संघ की परम्परा में अनुरक्त, विषयसेवी, साधुवेषधारी, आचारहीन चैत्यवासियोंने जिनोक्तमार्ग से विरुद्ध मार्ग को चारों और फैला रखा है ॥ ३ ॥ ४ ॥ 'यत्रौदेशिक '--आधार्मिक भोजन १, जिनालय में वास २, ( वसति ) For Private And Personal Use Only

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