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उपाश्रय के प्रति मत्सरता ३, धन अर्थस्वीकार ४, गृह श्राद्धस्वीकार ५, तथा चैत्यसदन का स्वीकार ६, अप्रत्युपेक्षित आसन गद्दी पर बैठना ७, सावद्य आचरण में आदर रखना ८, श्रुतमार्ग का अपमान करना ९, और गुणिजनों के प्रति द्वेष रखना १०, ये दश द्वाररूप जिस मार्ग में धर्म माना गया है। यदि इस प्रकार का धर्म कर्म-मल को दर करनेवाला हो तो मेरुपर्वत भी समुद्र में तैरने लग जाय । अर्थात् जैसे मेरुपर्वत समुद्र नहीं तिर सकता, उसी प्रकार यह धर्म भी कदाचिदपि कर्महारक नहीं हो सकता ॥५॥
(१) औदेशिक आहार विषयक प्रथम द्वार कहते हैं
'षटकाया०'-इति । पृथिवी आदि षट्काय के जीवों को निर्दयतापूर्वक उपमर्दित करके मुनियों के निमित्त जो आहार बनाया गया है, जिस आहार का शास्त्र में वारंवार निषेध किया गया है, जो आहार निसंशता-निर्दयता का सूचक है, जिस आहार को तीर्थङ्करआदिने गोमांसतुल्य कहा है, जिसको खाकर मुनि नरकगामी होता है। श्रमणसङ्घ आदि के निमित्त बनाये गये एसे आधार्मिक आहार को कौन दयालु मुनि ग्रहण करने की इच्छा करेगा ? अर्थात् कोई नहीं ॥ ६ ॥
( २ ) अब जिनगृहनिवास विषयक दूसरा द्वार कहते हैं
'गायद ' इति-गन्धर्व( गायक ) जहां गीत गा रहे हैं, वेश्यायें जहां नांच रही हैं, जहां बंशी की ध्वनि मुखरित हो रही है, जहां मृदङ्ग ध्वनि गूंज रही है, जहां पुष्पमालाएं लहलहा रही है, कस्तूरी की सुगन्ध से जहां देवभवन सुरमित हो रहा है, जहां पर जरीदार चंदोवा चमचम चमक रहा है, तथा खूब सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित श्रावक-श्राविकाओं के समुदाय का जहां आने-जाने का तांता (परम्परा) लगा हुआ है, जो कि मात्र भगवद्गुणगान भक्ति के लिये उपयुक्त हैं। उन चैत्यों-मन्दिरों में देवद्रव्य का उपभोग, ताम्बूल भक्षण, शयन, आसन आदि करने रूप आशातनाओं से डरते हुए जैनसिद्धान्त के मर्मज्ञ मुनि कभी भी निवास नहीं करते हैं ॥७॥
( ३ ) परगृहवास विषयक तीसरा द्वार कहते हैं
'साक्षा० ' इति--भगवान् तीर्थङ्करोने तथा गणधरोंने जहां स्वयं निवास किया है, और दूसरे साधुओं को भी वहां पर निवास करने की आज्ञा दी है, जो श्रेष्ठ मुनियों के लिये निस्सङ्गता का प्रधान स्थान परगृह( उपाश्रय ) है, उसका शय्यातर ( वसतिदान द्वारा संसारसागर को पार करनेवाला श्रावक ) और अनगार( अगार-घर
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