Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 13
________________ 16 सम्मइसुतं साथ होते हैं। इस मान्यता का समर्थन 'जयधवला' में किया गया है कि सर्वन को किसी प्रकार की इन्द्रियों की सहायता लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। उनका ज्ञान पूर्ण, स्वतन्त्र तथा आत्यनिर्भर होता है। इन सैद्धान्तिक मान्यताओं के प्रतिपादन से यह स्पष्ट हो जाता है कि "सन्मतिसूत्र" (गा. 2, 30) में इस प्रकार की विवेचना दिगम्बर जैन आम्नाय के अनुसार वर्णित है। आचार्य सिद्धसेन विवेचन करते हुए कहते हैं-''मन, वचन और शरीर के व्यापार से उत्पन्न आत्मा के प्रदेशों में परिस्पन्दन रूप मिया (योग) से मनुष्य कर्मों से बँधता है। और इसका कारण मोच, अहंकार, भाया और लोम रूप कषाय भाव हैं, जिनसे कर्म ग्रहण किए जाते हैं तथा जो कर्मों की स्थिति निर्मित करते हैं। परन्तु उपशान्त और क्षीणकषाय की अवस्था में कर्म-वन्ध की स्थिति का कोई कारण विद्यमान नहीं रहता। आचार्य पूज्यपाद 'तस्वार्थसूत्र' (8, 3) की अपनी टीका में इस गाथा का उद्धरण देते हुए अपनी व्याख्या में कहते हैं : "जीव योग से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध तथा कषाय से स्थिति और अनुभागबन्ध निष्पन्न करता है। कषाय के उपशान्त, निर्जीर्ण या क्षीण होने पर बन्ध (स्थितिबन्ध) का कारण नहीं रहता। भाव यह है कि सयोगकेवली के एक समय का बन्ध, स्थिति का कारण नहीं है अर्थात जिस समय बन्ध होता है, उसी समय सब कर्म झड़ जाते हैं।'' आगम ग्रन्थों में यह कहा गया है कि द्रव्य वर्तमान पर्याय से भिन्न नहीं है। 'षट्खण्डागम' की 'धवला' टीका में आचार्य वीरसेन 48वें सूत्र में प्रतिपादित नयों की व्याख्या करते हुए व्यवहारनय का विषय स्पष्ट करने के लिए कहते हैं-अर्थ और व्यंजन पर्याय के भेद से पर्याय दो प्रकार की है। उनमें अर्थपर्याय अति विशिष्ट होने से एक आदि समय तक रहने वाली कही गई है। किन्तु व्यंजन पर्याय अन्तमुहूर्त से ले कर असंख्यात लोक मात्र काल तक अवस्थित अथवा अनादि-अनन्त है। इस व्यंजन पर्याय से स्वीकृत द्रव्य को भाव कहा जाता है। अतएव मावकृति की द्रव्यार्थिकनय विषयता विरुद्ध नहीं है। यदि इस मान्यता का 'सन्मतिसूत्र' के साथ विरोध होगा-यह कहा जाए तो उचित नहीं है। क्योंकि सूत्र में शुद्ध ऋजुसून नय से विषय की गई पर्याय से उपलक्षित द्रध्य को 'भाव' माना गया है। इस प्रकार सम्पूर्ण अर्थ को मन में निश्चित कर आचार्य भूतबली भट्टारक ने नैगम, व्यवहार और संग्रह नय इन सब कृतियों को स्वीकार कर कथन किया है। आचार्य अकलंकदेव ने द्रव्य 1. रहीणे इंसणमोहे चरित्तमोहे. तहेच घाइलिए। सम्मत्त-विरियणाणी खइए ते हॉति जीवागं || -षट्खण्डागम, ग्रन्थ ।, I, गा. 59, पृ. 61; जयधयला, ग्रंथ। , गा. , पृ. 68 तथा धयला, 4, 1, 44, पृ. 119 tथ- जयधवला. ग्रन्थ 1, I, पृ. 352-6। १. कम्म जोगणिमित्तं बमइ बंधदिई कसायवसा।। अपरिणदिष्णेसु य बंधविश्कारणं णस्थि ॥ -सन्मतिसून, 1, 19 ७. जोगा पयहि पएसा ठिदि अणुभागा कसायदो कुणदि। अपरिणदुचिपणेलु य अंघठिदिकारणं गला ॥ 1 ॥ - सर्वार्थसिद्धेि, H, ५

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