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सम्मइसुत्तं
शब्दार्थ-पज्जववियं-पर्याय (से) रहित; दव्य-द्रव्य; य-और; दवयिउत्ता-द्रव्य (से) अलग; पज्जया-पयांया णस्थि-नहीं (है)। उप्पायट्टिइभंगा-उत्पाद, स्थिति (और) व्यथ (से युक्त वस्त) के कथन-प्रकार से; हंदि-निश्चय (से); एयं-यहः दचियलक्खणं-द्रव्य (का) लक्षण (है)।
द्रव्य का लक्षण : भावार्थ-द्रव्य का स्वरूप नित्यानित्यात्मक है। कोई द्रव्य नित्य तथा कोई द्रव्य अनित्य मात्र नहीं है। क्योंकि पर्याव से रहित कोई द्रव्य नहीं है। और द्रव्य से विहीन पर्याय नहीं है। पर्यायवान् द्रव्य उत्पत्ति, स्थिति और विनाशशील है। इसलिये उत्पाद, स्थिति और व्यय इन तीनों से युक्त द्रव्य का लक्षण कहा गया है। द्रव्य का लक्षण 'सत्' है और 'सत्' उत्पाद, व्यय एवं धौय्यात्मक होता है। अतएव इन तीनों से युक्त द्रव्य है। ये तीनों विभाग रहित हैं। क्योंकि द्रथ्य एवं पर्याय का अविनाभाव सम्बन्ध है। इसलिए भिन्न-भिन्न निमित्तों के संयोग से वस्तु भिन्न-भिन्न रूपों में परिणमती रहती है। किन्तु अपने मूल रूप का कदापि त्याग नहीं करती।
एा पण संगहओ णडिक्कमलक्खणं दुर्वेण्ह' पि। तम्हा मिच्छादिह्रो पत्तेयं दो वि मूलणया ॥1॥
एते पुनः संग्रहतः प्रत्येकमलक्षणं द्वयोरपि । तस्मान् मिथ्यादृष्टी प्रत्येक द्वावपि मूलनयौ |13||
शब्दार्थ-एए-ये पुण-फिर; संगहओ-संग्रह (परस्पर अभिन्न) नय से दवेह-दोनों: पि-भी; पाडिक्कमलक्खणं-प्रत्येक अलक्षण (लक्षण वाले नहीं है); तम्हा-इसलिए; पत्तेयं-प्रत्येक; दो-दोनों; वि-ही; मूलणया-मूल नवः मिच्छादिटूठी-मिथ्यादृष्टि
दोनों नय : असत्य दृष्टि ? भावार्थ-उत्पाद, स्थिति और व्यय ये तीनों अपृथक रूप से रहते हैं। एक के बिना दूसरे का सद्भाव नहीं है। इसलिए ये अलग-अलग द्रव्य के लक्षण नहीं कहे गए हैं। दोनों नयों का विषय (सामान्य तथा विशेष) अलग-अलग रूप में द्रव्य (सत्) का लक्षण नहीं बन सकता। अतएव दोनों नय परस्पर निरपेक्ष अवस्था में मिथ्या रूप 1. " दुविण्हें। 2. स" वि। 3. अ, ब" मिच्छाददठी।