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सम्मसुतं
सर्वज्ञ सामान्य विशेष रूप पदार्थों का ज्ञाता :
भावार्थ - यदि सर्वज्ञ एक समय में सभी पदार्थों को सामान्य विशेष रूप आकार सहित जानता है, तो यह मान्यता युक्तियुक्त हो सकती है। इसके अतिरिक्त अन्य प्रकार से मानने पर उनमें सर्वज्ञता, सर्वदर्शिता नहीं बन सकेगी। क्योंकि दोनों प्रकार के उपयोग ( दर्शनोपयोग, ज्ञानोपयोग ) अपने-अपने विषय को भिन्न-भिन्न रूप से जानते हैं। जिस समय एक उपयोग सामान्य का ज्ञाता होता है, उस समय विशेष का ज्ञान कैसे हो सकता है? इसी प्रकार जब दूसरा उपयोग विशेष का ज्ञाता होता हैं, तो उसका कार्य भिन्न होता है। इसलिए वस्तु में पाए जाने वाले उभय धर्मों ( सामान्य, विशेष ) का ज्ञाता एक उपयोग नहीं हो सकता। अतएव इन उपयोगों में से क्रमशः जानने वाला सर्वज्ञ नहीं हो सकता। क्योंकि उनमें एक चैतन्य प्रकाश पाया जाता है।
परिसुद्धं सायारं अवियत्तं दंसणं अणायारं । णय खीणाव जुज्जब सुविदत्तमायतं ॥
परिशुद्धं साकारमव्यक्तं दर्शनमनाकारम् । न च क्षीणावरणीये युज्यते सुव्यक्तमव्यक्तम् ॥11॥
शब्दार्थ - साया - साकार (ज्ञान); परिसुद्ध-निर्मल (होता है); अणायार-अनाकार, दंसणं- दर्शन; अवियत्तं - अव्यक्त ( रहता है); खीणावरणिज्जे - क्षीण आवरण वाले केवली में सुवियत्तमविवत्तं -- सुव्यक्त (तथा) अव्यक्त ( का भेद ) : ण-नहीं; य-३ - और; जुज्जइ - युक्त ( है ) ।
केवली में व्यक्त-अव्यक्त का भेद नहीं :
भावार्थ - यह कथन करना कि केवली जिस समय साकार ग्रहण करते हैं, उस समय केवलदर्शन ( अनाकार ) अव्यक्त रहता है और जब वे दर्शन ग्रहण करते हैं, तब साकार अव्यक्त होता है, उचित नहीं है; क्योंकि उपयोग की यह व्यक्त एवं अव्यक्त दशा आवरण का सर्वथा विलय कर देने वाले केवली में नहीं बनती हैं।
अहिं अण्णायं च केवली एव भासइ सया वि । एगसमयम्मि' हंदी वयणवियप्पो ण संभवइ ||12||
1. मुद्रित पाठ है- सागारं ।
2. पुद्रित पाठ है" - झणागारं ।
3. ब" सुवियत्तयथियतं ।
1.
5.
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प्रति में 'च' छूटा हुआ है।
"ब" सनाए ।