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सम्मइसुत्तं
जं पच्चक्खग्गहणं ण एंति सुयणाणसम्मिया' अत्या। तम्हा सणसद्दो ण होइ सयले वि सुयणाणे' ॥28॥ यस्मात्प्रत्यक्षग्रहणं न यान्ति श्रुतज्ञानसम्मिता अर्थाः। तस्माद्दर्शनशब्दो न भवति सकलेऽपि श्रुतज्ञाने ॥2811
शब्दार्थ-जं-जिस कारणः सुर्यणाणसम्मिया-श्रुतज्ञान सम्मित (आगम के ज्ञान में जाने गए); अत्या-पदार्थ; पच्चक्खग्गहणं-प्रत्यक्ष ग्रहण को; ण-नहीं; ऐति-प्राप्त होते (है); तम्हा-इस कारण; सयले-सम्पूर्ण में; वि-भी; सुयणाणे-श्रुतज्ञान में दसणसद्दो-दर्शन शब्द (लागू ण-नहीं; होइ-होता (है)।
शुतज्ञाः ६ वर्शन शव ता रहीं: भावार्थ--शास्त्र-ज्ञान से जिन पदार्थो को जाना जाता है, वे सब इन्द्रियों से अस्पृष्ट तथा अग्राह्य होते हैं। अतः अन्य ज्ञानों के साथ जैसे दर्शन शब्द संयुक्त होता है, वैसे ही श्रुतज्ञान के साथ दर्शन शब्द प्रयुक्त नहीं होता। इसका कारण यह है कि श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष की भाँति स्पष्ट रूप से ग्रहण नहीं करता। दर्शन से उनका ग्रहण स्पष्ट रूप से होता है, जबकि श्रुतज्ञान से अस्पष्ट रूप से एवं परोक्ष रूप से ग्रहण होता है। इस प्रकार जितना भी श्रुतज्ञान है, उसके साथ दर्शन शब्द लागू नहीं होता।
जं अप्पट्ठा भावा ओहिण्णाणस्स होति पच्चक्खा । तम्हा ओहिण्णाणे दंसणसद्दो वि उवउत्तो ॥29॥ यस्मादस्पृष्टा भावा अवधिज्ञानस्य भवन्ति प्रत्यक्षाः । तस्मादवधिज्ञाने दर्शनशब्दोप्युपयुक्तः ॥29॥
शब्दार्थ-जं-क्योंकि, अप्पट्टा अस्पृष्ट; भावा--पदार्थ; ओहिपणाणस्स-अवधिज्ञान के पच्चकला-प्रत्यक्षा होति-होते (है); तम्हा-इसलिए; ओहिण्णाणे- अवधिज्ञान में; वि-भी; दसणसद्दो-दर्शन शब्द; उवत्तो-उपयुक्त (है)1
अविधज्ञान में दर्शन शब्द का प्रयोग उपयुक्त : भावार्थ-जिस प्रकार मतिज्ञान में दर्शन शब्द प्रयुक्त होता है, वैसे ही यह अवधिज्ञान
I. व पर्णात सुनाणसीसआ। १. स" न। 3. ब" सयतो। 4. 2 वी गाथा के स्थान पर 2५ घी गाथा है।