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सम्मइसुतं
काय-मनो-वचन-क्रिया-रूपादिगति-विशेषतो वापि। संयोगभेदतो जानीयाच्च द्रव्यस्योत्पादः ॥42।।
शब्दार्थ-कायमणवयणकिरिया-पाटीर, न, वचन (को) क्रिण (से. एतादराई-कार आदि (से एव) गतिः विसेसओ-विशेष से; वावि-भी: संजोगभेयओ-संयोग (और) विभाग से दवियस्स-द्रव्य का; जम्पाओ-उत्पाद (होता है...ऐसा); जाणणा-जानें।
द्रव्य में एक ही समय में तीनों : 'मावार्थ-एक संसारी जीव जब किसी विवक्षित गति में संज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याय में उत्पन्न होता है, तब उसके एक ही समय में मन, वचन, शरीर आदि होते हैं। उसी समय में उसके देह रूप में अनेक पुद्गल-परमाणु, अनेक मनोवर्गणाएँ, अनेक वचन-वर्गणाएँ मन-यचन के रूप में परिणमन करती हैं। उसी समय आगामी काल में होने वाली पर्याय के योग्य कर्म-बन्ध, कर्मोदय आदि सब होते हैं। इसी प्रकार पूर्व काल में संचित कर्म-परमाणुओं की निर्जरा, विभाग आदि होते हैं तथा अनुगम रूप से इन सभी पर्यायों में जीवादि का अस्तित्व बना रहता है। इस प्रकार एक ही समय में एक ही द्रव्य में अनंक उत्पाद, ब्यय और स्थिति होने में किसी प्रकार की बाधा नहीं है।
दुविहो धम्मावाओ' अहेउवाओ य हेउवाओ य। तत्य उ अहेउवाओ भवियाअभवियादओ भाचा 1143॥ द्विविधो धर्मवादोऽहेतुवादश्च हेतुवादश्च । तत्र त्वहेतुवादो भव्याभव्यादयो भावाः ||43||
शब्दार्थ-धम्मावाओ-धर्मवाद: दुविहो-दो प्रकार (का है) अहेउवाओ-अहेतुवाद, य-और; हेवाओ-हेतुवाद (के भेद से): य-और: तत्थ-उसमें; अहेउवाओ-हेतुवाद (के विषय); उ-तो; भवियाअमवियादओ-भव्य-अभव्य (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय) आदि; भावा-पदार्थ (है)।
धर्मवाद भी दो प्रकार का : भावार्थ-धर्मवाद (वस्तु में अनन्त धर्म हैं, यह निर्दोष रीति से प्रतिपादन करने वाला आगम) दो प्रकार का है. एक हेतुवाद दूसरा अहेतुवाद । आगम में प्रतिपादित तत्त्वों की प्ररूपणा इन दो भागों में विभक्त है। केवल आज्ञाप्रधानी या श्रद्धाप्रधानी अथवा
1. द" प्रमोवाओ।