Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 122
________________ सम्मसुतं प्रत्येकनयपथगतं सूत्रं सूत्रधरशब्दसन्तुष्टाः । अपि कोविदसामर्थ्याः यथागमविभक्तप्रतिपत्तयः ॥6॥ शब्दार्थ- पाडेक्कणयपहगबं- प्रत्येक नय मार्गगत ( पर आश्रित) सुत्तं --सूत्र को ( पढ़ कर जो ) : सुत्तधरसहसंतुट्ठा - सूत्रधर शब्द (से) सन्तुष्ट ( हो जाते हैं); अविको वियसामत्था - निश्चय (से) विद्वान् (के) सामर्थ्य ( को ) : जहागमविभत्तपडिवत्ती - आगमानुसार भिन्न ज्ञान ( प्राप्त करते हैं) । 151 अनेकान्ती ही भावस्पर्शी : भावार्थ- जो किसी एक नय से सूत्र की पढ़ कर यह समझता है कि 'सकल संसार क्षणिक है', 'तत्त्व प्राय ग्राहक भाव से शून्य है', 'यह सब विज्ञान मात्र है, इत्यादि सूत्रों से यह धारणा बना लेता है कि मैं सूत्रधर हो गया हूँ, सूत्रों का जानकार हूँ, यह शब्द मात्र से सन्तुष्ट हो जाता है। उसमें शब्दों की विद्वत्ता का अभिमान जाग उठता है। वास्तव में तो वह आगम से भिन्न अर्थ को समझ रहा है। क्योंकि शब्द मात्र को पढ़ लेने से कोई विद्वान् नहीं बन जाता । यथार्थ में सूत्र रटने वाले तत्त्व को जितना समझते हैं; तत्त्व उतना नहीं है। आगम के अनुसार वही ज्ञान प्राप्त कर सकता है, विद्वान् बन सकता है जो तत्त्वज्ञ हो, वस्तु का तलस्पर्शी ज्ञान चाला हो तथा अनेकान्त सिद्धान्त से वस्तु तत्त्व का भाव स्पर्श करने वाला हो । सम्मदंसणमिणमो सयलसमत्तवयणिज्जणिद्दोसं । अत्तुक्कोसविणट्ठा' सलाहमाणा विषासेंति' ॥62| सम्यग्दर्शनमेतत् सकलसमाप्तवचनीयनिर्दोषम् । आत्मोत्कर्षविनष्टाः प्रः श्लाघमानाः विनाशयन्ति ॥62॥ शब्दार्थ- सलाहभाणा - ( अपनी ) प्रशंसा के पुल बाँधने वाले अत्तुक्कोसविणट्टा - आत्मोत्कर्ष (से) नष्ट ( हो कर ) सयलसमत्तययणिज्जणिद्दोस - सम्पूर्ण सिद्ध निर्दोष वक्तव्य ( बाले) : इममी - इस सम्महंसण - सम्यग्दर्शन को; विणासेंति नष्ट कर देते हैं। आत्म-प्रशंसा से अनिष्ट भावार्थ - जो व्यक्ति एकान्त ( पूर्वाग्रह ) से समझ कर यह धारणा बना लेते हैं कि जो कुछ हम जानते हैं, वही पूर्ण है, निर्दोष है और वही वस्तु का वास्तविक स्वरूप 1. व जहागमविभागपडिवती द जहागमविभपडिवत्ता । १. अधुक्कोसविणा ।

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