Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 127
________________ 156 सम्म सुतं जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ । तरस भुवर्णेक्कगुरुणो णमो अगंतवायस्स' ॥6॥ वेन विना लोकस्यापि व्यवहारः सर्वथा न निवर्तते । तस्य भुवनैकगुरवे नमोऽनेकान्तवादाय ||69|| शब्दार्थ - जेण विणा - जिसके बिना लोगस्स - लोक का वबहारो-व्यवहार; वि- भी; सव्वहा - सर्वथा: ण- नहीं; णिव्वडड़ - निष्पन्न होता है; तस्स-उस; भुवणेक्कगुरुणो-तीन लोक (के) अद्वितीय गुरुः अणेगंतवायस्स- अनेकान्तवाद को णमो नमस्कार ( है ) । व्यवहार का भी साधक अनेकान्त : भावार्थ – अनेकान्तयाद परमार्थ तथा व्यवहार दोनों का आश्रय स्थान है। इसका आश्रय लिए बिना परमार्थ और व्यवहार दोनों ही नहीं बन सकते। यथार्थ में वस्तु का सत्य ही ग्रहण करने योग्य है। क्योंकि व्यवहार में व्यक्ति से सत्य में विभिन्नता लक्षित होती है। परन्तु वस्तु के सत्य में किसी भी प्रकार की परिलक्षित नहीं होती। लोक में स्थिति, स्थान समय तथा भावों की विलक्षणता के कारण एक ही वस्तु, व्यक्ति या स्थान की प्रतीति अलग-अलग समयों में भिन्न-भिन्न रूप से अनुभव में आती है। परन्तु स्व-संवेदनजन्य अतिलौकिक आनन्द की अनुभूति सब में समान रूप से अनुस्यूत होती है। इस प्रकार यह अनेकान्तवाद परमार्थ तथा लोक-व्यवहार दोनों का समान रूप से साधक है। अतएव सम्पूर्ण विश्व का यह एक अद्वितीय गुरु है । L. 2. 3. महं मिच्छादंसण' समूहमहयस्स अमयसारस्स' । जिणवयणस्स भगवओं संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥7॥ भद्रं मिथ्यादर्शनसमूहमथकस्यामृतसारस्य । जिनवचनस्य भगवतः संविग्नसुखाधिगम्यस्य ||70|| शब्दार्थ- मिच्छादंसण – मिध्यादर्शन ( मिथ्या मतों के); समूह - समुदाय ( वर्ग का) : महयस्स - मथन करने वाले अमयसारस्स-अमृत सार (रूप) संविग्ग मुमुक्षु (के); सुहाहिंगम्मस्स - सुख ( पूर्वक ) समझ में आने वाले भगवओ - भगवान के जिणवयणस्स - जिन वचन (के) से भदं भद्र ( कल्याण हो) । यह गांथा 'ख' और 'दं' प्रति में मिलती है। ब" पिच्छक्षण। अ" मयसायस्स दरमडथए ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 125 126 127 128 129 130 131