Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 125
________________ 154 सम्मइसुतं जह जह बहुस्सुओ सम्मओ य सिस्सगणसंपरिवुडो' य। अविणिच्छिओ य समये तह तह सिद्धतपडिणीओ ॥66॥ यथा यथा बहतः सम्मतश्च शिष्यगणसंपवितश्च । अविनिश्चितश्च समये तथा तथा सिद्धान्तप्रत्यनीकः ॥66।। शब्दाथ-समये-सिद्धान्त में; आणिच्छिओ-अनिश्चित (बुद्धि वाला कोई आघाय); जह जह-जैसे-जैसे; बहुस्सुओ-बहुश्रुत (पण्डित); सम्मओ-माना जाता है; यऔर; सिस्सगण-संपरिवडो-शिष्यवृन्द से घिरता जाता है। तह तह-वैसे-वैसे; सिद्धतपडिणीओ- सिद्धान्त के प्रतिकूल होता जाता है। पर-समय में रत आचार्य : मावार्थ-जो आचार्य स्व-समय रूप सिद्धान्त नहीं जानते हैं, परन्तु बहुश्रुत (अनेक शास्त्रों के ज्ञाता) होते हैं, वे मूलतः तत्त्व-निर्णय के अभाव में शिष्य-समूह से घिर जाते हैं और शनैः शनैः उनका जीवन सिद्धान्त के प्रतिकूल होता है। अतएव ऐसे आचार्य को सिद्धान्त का शत्रु कहा गया है। चरण-करणप्पहाणा ससमय-परसमयमुक्कदावारा। चरण-करणस्स सारं णिच्छयसुद्ध ण याणति ॥67॥ चरण-करणप्रधानाः स्वसमव-परसमयमुक्तव्यापाराः। चरण-करणस्य सारं निश्चयशुद्धं न जानन्ति ॥67|| शब्दार्थ-चरण-करणप्पहाणा-(बाह्य) आचरण की क्रियाओं को मुख्य (समझने वाले); ससमय-परसमयमुक्कवावारा-स्व-समय (और) पर-समय (के) व्यापार (चिन्तन) से मुक्त; चरण-करणस्स-आचरण परिणाम का; सारं-सार णिच्छयसुद्ध-निश्चय शुद्ध (आत्मा) को; ण-नहीं; याणांते-जानते हैं (अनुभव करते है। आचरण का सारः परम तत्त्व : भावार्थ-जो जीव विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाले शुद्धात्मतत्त्व के सम्यक् श्रद्धान-ज्ञानचारित्र रूप निश्चय मोक्ष-मार्ग से निरपेक्ष हो कर केवल व्रत, नियमादि शुभाचरण रूप व्यवहार नय को ही मोक्ष-मार्ग मानते हैं, वे देवलोकादि की क्लेश-परम्परा भोगते हुए संसार में परिभ्रमण करते हैं। परन्तु जो शुद्धात्मानुभूति लक्षण युक्त निश्चय मोक्षमार्ग I. य सोसगणसंपरिबुहो। 2. अयिणिचाओ अ सपए।

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