Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 123
________________ 152 सम्मइसुतं है; इससे अधिक कछ नहीं है- वे अपने बुद्धि-वैभव को संकुचित कर कूपमण्डूक जैसे अपनी प्रशंसा के पुल बाँधा करते हैं तथा बुद्धि-विलास मात्र से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। वे सभी मतों में समान रूप से आस्थावान होते हैं। क्योंकि वे आत्म-प्रशंसा के अभिलाषी होते हैं। इससे उनका आत्मोत्कर्ष अवरुद्ध हो जाता है। और वे अनेकान्त रूप सम्यग्दर्शन को नष्ट कर देते हैं। ण हु सासणभत्तीमत्तएण सिद्धंतजाणओ होइ। ण वि जाणओ वि' णियमा पण्ण्वणाणिच्छिओ णामं ॥3॥ न खलु शासनभक्तिमात्रेण सिद्धान्तज्ञातृको भवति। नापि ज्ञातापि नियमात् प्रज्ञापनानिश्चितो नाम ||63|| शब्दार्थ-सासणभत्तीमत्तएण-(जिन) शासन (की) भक्ति मात्र से (कोई व्यक्ति); ण हु-नहीं ही; सिद्धंतजाणओ-सिद्धान्त (का) ज्ञाता; होइ-हो जाता है; जाणओ वि-जानकार (होने पर) भी; ण वि-नहीं ही; णियमा-नियम से; पण्णयणाणिच्छिओप्ररूपणा (के योग्य) निश्चित: णाम-नाम (वाला होता है)। भक्ति मात्र से भान नहीं : भावार्थ-जिन-शासन में भक्ति रखने वाला भक्त जिन-सिद्धान्त का ज्ञाता नहीं हो जाता। और सिद्धान्त का (शब्दार्थ) ज्ञाता भी निश्चित रूप से तत्त्वों की प्ररूपणा करने में समर्थ नहीं होता। वास्तव में तत्त्वों की प्ररूपणा वहीं कर सकता है, जिसे तत्त्व-ज्ञान हो, आत्म-ज्ञान हो। पूर्ण निश्चित तत्वज्ञान तथा आत्मानुभव के बिना तथाकथित तत्त्वज्ञानी भी तत्त्वों की यथावत् विवेचना से हीन देखे जाते हैं। यथार्थ में तत्त्वज्ञान की विवेचना अनेकान्त-दृष्टि से ही सम्भव है। अतः तत्त्वज्ञान के बिना केवल सिद्धान्त का ज्ञाता पारंगत न होने से प्ररूपणा करने में असमर्थ रहता है। सुत्तं अस्थणिमेणं' ण सुत्तमत्तेण अत्यपडिवत्ती। अस्थगई उ' णयवायगहणलीणा दुरहिगम्मा 164॥ सूत्रमनिमेनं (स्थान) न सूत्रमात्रेणार्थप्रतिपत्तिः । अर्थगतिः पुन नयवादगहनलीना दुरभिगम्या ॥64|| 1. ब" विणाएति। 2. ब" अस्थमिमेणं । इ' अत्यनियेणं । ७. " अत्यगई यिनः 4. अ" दुरभिगम्मा।

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