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सम्मइसुत्तं
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को मानते हैं तथा साधन-शक्ति-सम्पन्नता के अभाव में निश्चय-साधक शुभाचरण करते हैं, तो वे सराग सम्यग्दृष्टि-परम्परा से मोक्ष प्राप्त करते हैं। परन्तु जो जीव केवल निश्चयनयावलम्बी हैं, वे व्यवहार रूप किया-कर्मकाण्ड को आडम्बर जान कर स्वच्छन्द होकर न निश्चयपद पाते हैं और न व्यवहार को ही प्राप्त करते हैं। उनको महान् आलसी कहा गया है। आचरण का सार परमतत्त्व की उपलब्धि करना है, परमात्मा बनना है। क्योंकि शुद्धास्मा को जाने बिना यह जीव मोक्ष-मार्ग का पथिक नहीं बन सकता है। केवल व्रत, नियमादि के परिपालन से शुद्ध आत्मा का अनुभव नहीं हो सकता है। जो शुद्ध आत्मा को आगम से जान कर उसका चिन्तन-मनन, अनुभव तथा अभ्यास करते हैं, वे ही निश्चय शुद्ध आत्मा को जान सकते हैं।
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णाणं किरियारहि निरिया तं व दो विना । असमत्या दाएउ* जम्ममरणदुक्ख मा भाई ॥68॥ ज्ञानं क्रियारहितं क्रियामात्रं च द्वावप्येकान्तौ। असमर्था दापयितुं जन्ममरणदुःखाद् मा भैषीः ॥68॥
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शब्दार्थ-किरियारहिवं-चारित्र विहीन; पाणं-ज्ञान: च-और; किरियामेत्तं-ज्ञान शून्य) मात्र चारित्र; दो वि-दोनों ही; एगंता-एकान्त (है); जम्ममरणदुक्ख-जन्म-मरण (के) दुःखों (से); मा--मत; भाई-टुरो; (परस्पर साथ रह कर ज्ञान और चारित्र); दाएर-(जन्म-मरण-दुःख) दिलाने में असमत्या-असमर्थ हैं)।
सापेक्ष ज्ञान, चारित्र ही कार्यकारी : भावार्थ-बिना ज्ञान के बाहरी धार्मिक क्रियाओं के पालन मात्र से आत्मा का कोई हित नहीं होता है। इसी प्रकार ज्ञान होने पर धार्मिक क्रियाओं का पालन एवं वैराग्य न हो, तो जीव जन्म-मरण के दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। जिस प्रकार किसी यने जंगल में भटके हुए अन्धे और लंगड़े अलग-अलग प्रयत्न करते हुए दावाग्नि से अपनी रक्षा करने में समर्थ नहीं होते, वैसे ही अलग-अलग ज्ञान तथा चारित्र से जन्म-मरण के दुःखों से छुटकारा नहीं मिलता। परन्तु जैसे लंगड़ा अन्धे के कन्धे पर बैठ कर जंगल से पार हो जाता है, उसी प्रकार चारित्र भी ज्ञान का आलम्बन लेकर जन्म-मरण के दुःखों से छुटकारा दिलाने में समर्थ होता है। अतएव सापेक्ष रूप से ज्ञान तथा चारित्र कार्यकारी हैं; निरपेक्ष रूप से नहीं।
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