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सम्पइसुत्तं ते उ भयणोवणीया सम्मइंसणमणुत्तरं होति। जं भवदुक्खविमोक्खं दो वि ण पूरेति' पाडिक्क ॥517 तौ तु भजनोपनीतौ सम्यग्दर्शनमनुत्तरं भवतः। यद् भवदुःखविमोक्षं द्वावपि न पूरयतः प्रत्येकम् ॥51 .
शब्दार्थ-ते-वे दोनों (सत्वाद, असत्वाद); भयणोवणीया-विभाग (किए जाने पर); अणुत्तरं-सर्वोत्तम; सम्मइंसणं-सम्यग्दर्शन; होति-होते (है); जं-जो (वह); पाडिक्क-प्रत्येक; दो वि-दोनों ही; भवदुक्खविमोक्वं-संसार (के) दुःख (से) मुक्ति; ण-नही; पूरैति-दिला सकते हैं।
वाद सम्यक् कद ? भावार्थ-जय के दोनों बाद (सद्धाद तथा असद्वाद) अनेकान्त दृष्टि से युक्त होते हैं, तभी सर्योसम सम्यग्दर्शन बनते हैं। क्योंकि एक-दूसरे की मान्यता से रहित सर्वचा स्वतन्त्र रूप में रहने पर वे संसार के दुखों से जीव को मुक्ति नहीं दिला सकते। बौद्ध और वैशेषिकों के प्रति सांख्य का यह कथन है कि यदि अपूर्व ही घटादि कार्य उत्पन्न होते हैं, तो मनुष्य के मस्तक पर सींग भी होने चाहिए। फिर, यह नियम नहीं बन सकता कि मिट्टी से ही घड़ा बनता है, सूत से ही वस्त्र बनता है। इस प्रकार चाहे जिस पदार्थ से चाहे जिस कार्य की उत्पत्ति हो जानी चाहिए, किन्तु लोक में ऐसा नहीं होता है। आम के पेड़ से ही आम के फल मिलते हैं। अतः इन परस्पर निरपेक्ष दृष्टियों पर जो दोषारोपण किए जाते हैं, वे सर्वथा सत्य ही हैं।
णस्थि पुढवीविसिट्ठो घडो त्ति जं तेण जुज्जइ अणण्णो। जं पुण घड़ों ति पुव्वं ण आसि पुढवी तओ अण्णो 152॥ नास्ति पृथ्वीविशिष्टो घट इति य तेन युज्यते अनन्यः । यः पुनर्घट इति पूर्व नासीत् पृथ्वी ततोऽन्यः ।।52।।
शब्दार्थ-घडो त्ति-घड़ा यह; पुढवीविसिट्ठो--पृथ्वी (से) विशिष्ट (भिन्न); णस्थि-नहीं (है); ज-जो; तेण-उससे; अणण्णो-अभिन्न; जुज्जइ-युक्त होता है, जं-जो पुण-पुनः (फिर); त्ति-यह (पृथ्वी); पुव्यं-पहले; घडो-घड़ा; ण-नहीं: आसि-थाः तओ-इसलिए; पुढवी-पृथ्वी (से); अण्णो-भिन्न (है)।
1. " भयणायणीआ। द भवणोदणीया। 2. भविदासविमुक्त। ५. ब" पूति।