Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 116
________________ और फिर भावार्थ - घड़ा पृथ्वी से भिन्न नहीं है, इसलिए उससे अभिन्न है तथा घड़ा पृथ्वी में पहले नहीं था, इसलिए वह उससे भिन्न है। यह निश्चित है कि मिट्टी में घड़े रूप होने की योग्यता, शक्ति है। किन्तु केवल मिट्टी की दशा में वह घड़ा नहीं है । विभिन्न सहकारी कारणों से युक्त होकर मिट्टी स्वयं घड़े रूप परिणमती है । अतएव घड़ा मिट्टी से अभिन्न भी है और भिन्न भी है। विभिन्न कारण-कलापों के योग से मिटटी का घड़ा बनता है जो प्रत्यक्ष रूप से भिन्न दिखलाई पड़ता है। किन्तु वास्तव में मिट्टी का विशिष्ट परिणमन ही घड़े के आकार का निर्माण है। मूल द्रव्य का कोई निर्माणकर्ता नहीं है। प्रत्येक द्रव्य का परिणमन भी स्वतन्त्र हैं। इसलिए मिट्टी में जो भी परिणमन होता है, वह अपनी योग्यता से होता है। परमार्थ में उसे कोई परिणमाने वाला नहीं है । सम्मइसुतं कालो सहाव गियई पुव्वकथं पुरिस कारणता । मिच्छत्तं ते चेव उ समासओ होंति सम्मतं ॥53॥ I. ५. कालः स्वभावः नियतिः पूर्वकृतं पुरुष- कारणैकान्तः । मिथ्यात्वं ते चैव तु समासतो भवन्ति सम्यक्त्वम् ||53|| शब्दार्थ- कालो-कालः सहाव-स्वभावः णियई - नियति पुव्वकयं - पूर्वकृत ( अदृष्ट); पुरिस - पुरुषार्थ, कारणेगंता - कारण (विषयक) एकान्त (वाट): मिच्छतं - मिथ्यात्य (है); से-वे; चेव ही समासओ समस्त (रूप में, सापेक्ष रूप से मिलने पर ) : सम्मत्तं - यथार्थ: होति - होते हैं। 145 कार्य की उत्पत्ति स्व-कारण से : भावार्थ - प्रत्येक कार्य अपने कारण से उत्पन्न होता है-यह एक शाश्वत नियम है। क्योंकि लोक में जो भी कार्य उत्पन्न हुए देखे जाते है, उनमें कोई-न-कोई कारण-सम्बन्ध लक्षित होता है। इन कारणों के सम्बन्ध में ही यहाँ पर विचार किया गया है। कोई काल को कारण मानता है, तो कोई स्वभाव को । यही नहीं, कोई नियति को कारण मानता है और कोई अदृष्ट को कोई इन चारों को कारण न मान कर केवल पुरुषार्य को ही कारण मानता है। इस प्रकार कारण के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं। एक कारणवादी दूसरे कारणवादी की मान्यता का तिरस्कार करता है। अतएव सभी एकान्त रूप से अपनी-अपनी मान्यता को अंगीकार किए हुए हैं। ये द' पाडेक्कं । पुयं 1

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