Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 118
________________ सम्मइसुत्तं 147 शब्दार्थ-अत्यि-है (आत्मा); अविणासथम्मी-अविनाशी स्वभाव (वाला है); करेइ-कर्ता (हे वह शुभ-अशुभ कर्मों का); वेएइ जानता (है); णिव्याणं-निर्वाण (मुक्ति है), य-और; मोक्खोवाओ-मोक्ष (का) उपाय (है); छस्समत्तस्स-सम्यकत्व के (ये) छह ठाणाई-स्थान (है)। आत्मवादी यथार्थ कैसे ? भावार्थ-आत्मा है। तीनों कालों में वह किसी भी समय मूल रूप से नष्ट नहीं होता, क्योंकि उसका स्वभाव अविनाशी है। वह पुण्य-पाप का स्वयं कर्ता है और उसके फल का स्वयं ही भोक्ता है। जब सभी कर्म-बन्धनों से वह छूट जाता है, तब उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। अतः मोक्ष प्राप्त करने का उपाय है। इस प्रकार की ये छह मान्यताएँ सम्यक् रूप मानी गई हैं। इन मान्यताओं वाला व्यक्ति आत्मानुभव पें लगता है और शुभ-अशुभ से हट कर शुद्धता का आलम्बन लेकर मुक्ति प्राप्त करता है। अतः आत्मवादी ही परम सुख को प्राप्त कर सकता है। जो निज शुद्धात्म स्वभाव को नहीं जानता है, वह आत्मयादी नहीं है। क्योंकि स्वानुभूतिगम्य स्व-संवेदन को उपलब्ध हुए बिना सत्य को कौन प्राप्त कर सकता है? सत्य की प्राप्ति के बिना नौन मा है? मगही गार्थ ।। साहम्मऊ च्च अत्थं साहज्ज' परो विहम्मओ वा वि। अण्णोण्णं पडिकुट्ठा दोषिण वि एए असवाया 1561 साधर्म्य त एवार्थ साधयेत् परो वैधाद् वापि । अन्योन्यं प्रतिक्रुष्टी द्वावप्येतावसद्वादी ॥6॥ शब्दार्थ-परो-पर (एकान्तवादी); साहम्मऊ-साधम्र्य से; व्य-अथवा; विहम्मओ-वैधर्म्य से; वा वि-भीः अस्य-अर्थ (साध्य); साहेज-साधे; एए-ये; दोषिण वि-दोनों ही; अण्णोण्णं-परस्पर; पडिकुवा-प्रतिषिद्ध (प्रतिकूल); असचाया-असद्वाद (है)। अनेकान्त-दृष्टि के अभाव में : भावार्थ-अनेकान्त-दृष्टि को विस्मृत कर कोई वादी साधर्म्य दृष्टि से या वैधर्म्य दृष्टि से अपने साध्य रूप अर्थ को सिद्ध करता है, तो दोनों दृष्टियों परस्पर प्रतिकूल होती हैं तथा दोनों याद असवाद कहे जाते हैं। यदि ये दोनों मान्यताएँ अनेकान्त शासन की मुद्रा से मुद्रित हों, तो उनमें परस्पर सौहार्द होने से कोई खण्डित नहीं कर 1. द मिश्सस्स। . "साहे।

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