Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 119
________________ 148 सकता है। इसलिए किसी एक ही वस्तु में नित्यता और अनित्यता सिद्ध करने के लिये केवल साधर्म्य दृष्टान्त या वैधर्म्य दृष्टान्त का प्रयोग करना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनमें समन्यय होना भी आवश्यक है। क्योंकि समन्बय के अभाव में ये दोनों ही परस्पर विरोधी हैं तथा अपूर्ण हैं। इनमें समन्वय न होने से ये एक दूसरे को मान्य नहीं हो सकते। परिणामस्वरूप इनका आपसी विरोध कभी शान्त नहीं हो सकता। अतएंव ग्रन्थकार ने परस्पर विरुद्ध दोनों मान्यताओं को 'असद्वाद' कहा है। दव्यट्ठियक्त्तव्यं सामण्णं पज्जवस्स य विसेसो'। एए समोवणीया' विभजवायं विसेसेंति' ॥57॥ द्रव्यार्थिकवक्तव्यं सामान्य पर्यवस्य च विशेषः । एतौ समुपनीती विभज्यवादं विशेषतः ॥57॥ शब्दार्थ-दबट्टियवत्तव्यं-द्रव्यार्थिक (नय का) वक्तव्य; सामण्णं-सामान्य (है), य-और, पज्जवस्स-पर्यायार्थिक (नय) का (वक्तव्य); बिसेसो-विशेष (है); समोवणीया-प्रस्तुतः एए-ये दोनों (सापेक्ष रूप से); विभज्जयाय-अनेकान्तवाद को; विससेंति-विशिष्ट बनाते हैं (रचते हैं। .अनेकान्तवाद का आधार ये दोनों नय : मावार्थ-द्रव्यार्थिक नय की मान्यता से सामान्य ही वास्तविक है तथा पर्यायार्थिक नय की मान्यता से केवल विशेष ही वास्तविक है। परन्तु इन दोनों के सापेक्ष होने पर एक-दूसरे का अस्तित्व सम्भावित हो जाता है। अतएव जब सामान्य धर्म की विवेचना की जाती है तो विशेक्ष धर्म अविवक्षित होने से गौण हो जाता है। इसी प्रकार जब विशेष धर्म की प्ररूपणा होती है तो सामान्य धर्म गौण हो जाता है। इनमें जो परस्पर मुख्य, गौण दृष्टि अन्वित रहती है, वही अनेकान्त की आधारशिला है। इस प्रकार इन दोनों नयों के सापेक्ष होने पर अनेकान्तवाद का जन्म होता है। द्रव्य सापान्य-विशेषात्मक है। इसलिये जब सामान्य का कथन किया जाता है तो विशेष गौण हो जाता है, उसका अभाव नहीं होता। इसी प्रकार जब विशेष का कथन मुख्य रूप से किया जाता है तो सामान्य गौण हो जाता है, उसका अभाव नहीं होता। दोनों प्रकार के गुण-धर्म प्रत्येक समय में द्रव्य में रहते हैं। 1. अटाण्णाय। 2. द' विमेसा। #. द समावणीया।

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