Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 117
________________ 146 सम्मइसुत्तं सभी विचार अपने आप में अपूर्ण हैं। इनमें किसी प्रकार की समन्वय दृष्टि नहीं है। इसलिए ये सम्पक नहीं हो सकते हैं। वास्तव में नियम यह है कि एक कार्य कई कारणों से मिल कर होता है। मुख्य रूप से कारण दो प्रकार के हैं- अन्तरंग और बहिरंग। स्वभाव, नियति, पुरुषार्थ और अदृष्ट अन्तरंग कारण है। काल आदि बहिरंग हैं। इन सब से मिल कर कार्य होता है। पत्थि ण णिच्चो ण कुणइ कयं ण वेएइ णत्यि पिव्वाणं । णस्थि य मोक्खोवाओ छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई 154॥ नास्ति न नित्यो न करोति कतं न वेदयति नास्ति निर्वाणम्। नास्ति च मोक्षवाद: षडू मिथ्यात्वस्य स्थानानि ॥54|| शब्दार्थ-त्यि-नहीं है (आत्मा); ण-नहीं; णिच्चो-नित्य हि); ण नहीं (है); कुणइ-करता (कुछ भी); कयं किए हुए (को); ण नहीं; येएइ-जानता (है); णस्थि-नहीं है: णिलाणं-निर्माण (मुक्ति: य-और मोक्खोवाओ-मोक्ष (का) उपाय; पत्थि नहीं है (तथा); छमिच्छत्तस्स-मिथ्यात्य के (ये) छह; ठाणाई-स्थान (है)। अनात्मदादी मान्यता अयथार्थ : भावार्थ-अनात्मवादी माध्यमिकों की तथा चार्वाक की यह मान्यता है कि आत्मा कोई स्वतन्त्र तत्त्व नहीं है। आत्मा है, पर नित्य नहीं है। क्षणिकैकान्तवादी बौद्ध यह मानते हैं कि वह क्षण-क्षण में नष्ट होता रहता है। अकर्तुत्ववादी सांख्य का यह मत है कि आत्मा क्षणिक तो नहीं, स्थायी है परन्तु वह कुछ करता नहीं है। जो कुछ भी करती है, वह प्रकृति ही करती है। लेकिन क्षणिकवादी बौद्ध ऐसा मानते हैं कि आत्मा शुभाशुभ कर्मों का कर्ता तो है, पर वह क्षणिक होने से उसके फल को नहीं भोगता है। अनिर्वाणी मीमांसकों का यह कथन है कि वह कर्ता तथा भोक्ता भी है, किन्तु उसे परमात्मा पद की प्राप्ति नहीं होती, उसकी मुक्ति नहीं होती। अनुपायवादी वैशेषिकों की यह मान्यता है कि मोक्ष प्राप्त करने का उपाय ही नहीं है। ये सभी मान्यताएँ मिथ्यात्व हैं। क्योंकि इस प्रकार की मान्यता से सम्यक प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। अस्थि अविणासधम्मी' करेइ वेएइ अत्यि णिवाणं। अस्थि य मोक्खोवाओ"छस्समत्तस्स' ठाणाई ॥55॥ अस्ति अविनाशधर्मी करोति वेदयति अस्ति निर्वाणम् अस्ति च मोक्षोपायः षट् सम्यक्त्वस्य स्थानानि ||55|| 1. स तं चेव । 2. " मोस्लोवाओ नत्यिथ । 3. बधभ्या। 4. ब' मोक्सोवाओ अत्यि उ ।

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