________________
सम्मइसुत्तं
141
धर्म को ग्रहण कर उसे अपना विषय बनाता है; परन्तु अन्य धर्मों का अथवा अन्य विषय का यह लोप नहीं करता है। इस प्रकार अनेक नयों (दृष्टियों) के साथ इसका सामंजस्य बना रहता है। अतएव वस्तुगत सभी धर्म क्रमशः नयवादों द्वारा प्ररूपित होते हैं। यही कारण है कि नयवाद को परिशुद्ध कहा गया है।
जावदिया वयणवहा' तावदिया चेव होति णयवाया। जावदिया णयवाया तावदिया चेव परसमया ॥47॥ यावन्तो वचनपथास्तावन्तश्चैव भवन्ति नयवादाः | यावन्तो नववादास्तावन्तश्चैव परसमयाः ॥47॥
शब्दार्थ-जावइया-जितने (भी); वयणवहा--बचनपथ (प्रकार हैं); तायड्या-उतने येव-ही; णयवाया-नयवाद, होति-होते हैं (और): जावइया-जितने; णयवाया-नयवाद (ह); तावइया-उतने; चैव-ही; परसमया-अन्य मत (है)।
जितने वचन-प्रकार उत्तने नववाद : भावार्थ-वस्तुगत धर्मों का प्रतिपादन करने के लिए वक्ता के जितने बचन-प्रकार (अभिप्राय) हैं, उतने ही नयवाद हैं। प्राचीन आचार्यों का यह मत है कि नय वक्ता के अभिप्राय विशेष को प्रकट करने वाला है। अभिप्राय विशेष को व्यक्त करने वाले जितने कथम-प्रकार हो सकते हैं, उतने ही नय होते हैं। सामान्यतः परस्पर निरपेक्ष कथन करने वाले परसमय हैं तथा सापेक्ष कथन करने वाले स्वसमय हैं। अतएय जितने भी परस्पर निरपेक्ष अभिप्राय करने वाले हैं या हो सकते हैं, उतने ही परसमय
उक्त गाथा 'गोम्मटसार कर्मकाण्ड' में गा. 894 के रूप में उपलब्ध होती है। 'षट्खण्डागम' जीवस्थान 1, 1, 1 में गा, 67 तथा 'तत्त्यार्थश्लोकवार्तिक' में पृ. 114 एवं 'प्रवचनसार' की चरणानुयोग सूचक चूलिका के अन्त में उद्धृत पाई जाती है।
जं काविलं दरिसणं एवं दयवियस्स वत्तव्यं । सुद्धोयणतणयस्स उ परिसुद्धो पज्जववियप्पो' ॥48।। यत्कापिलं दर्शनमेतद् द्रव्यार्थिकस्य वक्तव्यम् । शुद्धोदनतनयस्य तु परिशुद्धः पर्यवविकल्पः 18
1. अ" बयणवहा । व वयणपहा। ५. बदए। ५. ब' विगप्पो। अ" विषप्यो।