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सम्मइसुत्तं
पुवपडिक्कुट्ठो-पहले (ही) निषिद्ध (किया जा चुका है); एयं तु-यह तो; उयाहरणमेत्तं-उदाहरण मात्र (है)।
अभेदवादी का कथन : भावार्थ-द्रव्य तथा पर्याय में, गुण-गणी आदि में सर्वथा भेद मानने वाले प्रवादियों की मान्यता का तद्ग्राहक प्रमाण के अभाव के कारण पहले ही खण्डन किया जा चुका है। अतः एकान्त मान्यता निदोष नहीं है। अब अमेदवादी अपनी एकान्त मान्यसा की स्थापना करता हुआ दृष्टान्तपूर्वक स्पष्ट करता है कि गुण-गुणी में अभेद मान लेना चाहिए। अभेदवादी केवल एक सामान्य तत्त्व को ही स्वीकार करता है; बिशेष को नहीं। इसी मान्यता की स्थापना करने के लिए कहा जा रहा है।
पिउपुत्तणत्तुमव्ययभाऊणं' एगपुरिससंबंधो। ण य सो एगस्स पिय त्ति सेसयाणं पिया होइ॥1711 पितृ-पुत्र-नप्त-भागिनेय-भ्रातृणामेकपुरुषसम्बन्धः । न च स एकस्य पितेति शेषाणां पिता भवति ॥17||
शब्दार्थ-पिउ-पिता; पुत्त-पुत्र; णत्तु-नाती, भव्यय-भानजा; भाऊणं-भाई का; एगपुरिससंबंधो-एक (ही) पुरुष (के साथ) सम्बन्ध (भिन्न-भिन्न है); सो-बह; एगस्स--एक का; पिय ति-पिता (है, इससे); सेसयाणं-शेष जनों का पिया-पिता; ण य-नहीं होइ-होता है।
दृष्टान्त हैभावार्थ-जैसे एक ही पुरुष में पितृत्य, भागिनेयत्व और प्रातृत्व धर्म भिन्न-भिन्न अपेक्षा से घटित होते हैं, किन्तु वे सभी धर्म परस्पर भिन्न हैं तथा व्यक्ति में सम्बन्ध विशेष के कारण मान लिए जाते है, वास्तविक नहीं हैं। यदि इन धर्मों से व्यक्ति को सर्वथा भिन्न माना जाए, तो अनेकता का प्रसंग आता है। इसी प्रकार यदि अभेद पाना जाए, तो जैसे वह एक का पिता है, वैसे सबका पिता नहीं होगा अथवा बह किसी एक का भानजा है, तो सबका भानजा होने का उसे प्रसंग प्राप्त नहीं होगा। क्योंकि ये सभी धर्म भिन्न-भिन्न सम्बन्धों के कारण कल्पित किए जाते हैं। इसलिए इन सम्बन्धों की अपेक्षा व्यक्ति में एकत्य होने पर भी उसे भिन्न पान लिया जाता
1. पिअपुतमितभज्जयमाऊणं । 2. ब" पिउ ति।