Book Title: Sammaisuttam
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 94
________________ सम्मइसुतं 123 युज्या मनावशार निवि एनरेत् । नयनादिविशेषगतो रूपादिविशेषपरिणामः ||21|| शब्दार्थ-संबंधवसा-सम्बन्ध-वश से संबंधिविसेसणं-सम्बन्ध विशेष (वालो वस्तु जुज्जड़-प्रयुक्त होती है; ण-नहीं, उप-फिर; एयं-यह (ये); णयणाइविसेसगओ-नेत्र आदि (के) विशेष सम्बन्ध; (के कारण) रुवाइविसेसपरिणामो-रूप आदि विशेष परिणाम (घटित होते है)। सिद्धान्ती को तर्क : भावार्थ-अभेदवादी के इस कथन से सम्बन्धों के वश से वस्तु में अनेक प्रकार का सम्बन्धीपन सिद्ध होता है'-हमारी असहमति नहीं है। जैसे कि-एक ही पुरुष दण्ड के सम्बन्ध से दण्डी कहा जाता है और कम्बल के सम्बन्ध से उसे ही कम्बली कहा जाता है। किन्तु हमारा यह प्रश्न आप से बराबर बना हुआ है कि भिन्न-भिन्न कालेपन में वैषम्य प्रतीत होता है, वह चक्षु इन्द्रिय से किस प्रकार ग्राह्य हो सकता है ? क्योंकि चक्षु इन्द्रिय का सम्बन्ध केवल कृष्ण वर्ण से है, उसकी विषमता से नहीं है। विषमता का सम्बन्ध तो विशेष धर्म से है जो वस्तु में स्वतः सिद्ध है, निमित्त कारण उसके व्यंजक मात्र होते हैं। भण्णइ विसमपरिणयं कह एवं होहिइ ति उवणीयं । तं होइ परणिमित्तं ण व त्ति ऍत्थरिथ' एगतो ॥22|| भण्यते विषमपरिणतं कथमेत भविष्यतीत्युपनीतम्। तद् भवति परनिमित्तं न वेत्यत्रास्त्येकान्तः ॥22॥ शब्दार्थ-एवं-यह; विसमपरिणय-विषम परिणाम रूप; कह-किस प्रकार; होहिइ-होगा; त्ति-यह (जो); उवणीयं-घटित (होता है); तं-वह; परणिमित्तं-पर-निमित्त (की अपेक्षा से घटित); होइ-होता है; ति-यह (है); ण व-अथवा नहीं (भी है, क्योंकि) एगतो-एकान्त; ऍत्यत्यि-यहाँ (इस विषय में) है (नहीं)। प्रश्नोत्तर : भावार्थ-जिस प्रकार एक वस्तु में शीत तथा उष्ण परस्पर विरुद्ध धर्म होने से एक साथ अस्तित्व में नहीं रहते, उसी प्रकार एक ही तत्त्व में परस्पर विरोधी विषम परिणाम रूप अनेक धर्मों का युगपत् अवस्थान कैसे घटित हो सकता है ? इस शंका का I. व" नत्यत्यि।

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